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भूमिका
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जैन धर्म निरपेक्षता
- सतेन्द्रकुमार जैन
भारत धर्म प्रधान देश होने के साथ कर्म प्रधान देश भी है। यहाँ भाग्य के साथ पुरुषार्थ को भी समानता से मान्यता प्राप्त है। प्रत्येक धर्म में भेदभाव से रहित होकर आचरण करने पर बल दिया गया है। भारत में समान संस्कृति और सभ्यता वाले लोग तो मिलकर रहते ही हैं परन्तु असमान सभ्यता और संस्कृति वाले लोगों का समावेश भी भारत की धर्म निरपेक्षता की विशेषता है यहाँ पर विभिन्न जाति, धर्म, संस्कृति, सभ्यता के अनुयायी निवास करते हैं। इन सभी के मध्य भाईचारा का संबन्ध स्थापित करने के लिए धर्म निरपेक्षता की नितान्त आवश्यकता है। जैनधर्म का कथन है कि सभी जीवों के प्रति मैत्री, प्रमोद, करुणा, माध्यस्थ का भाव रखने से द्वेषभाव कम होता है। अन्य धर्मों ने मात्र मनुष्य के प्रति मैत्री प्रेम का भाव रखने का संकेत दिया है परन्तु जैनदर्शन में आचार्य अमितगति ने कहा है कि
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सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वं । माध्यस्थभावं विपरीतवृत्ती सदा ममात्मा विदधातु देवी ॥"
अर्थात् सज्जन पुरुषों से मित्रता, गुणीजनों में आनन्द का भाव, पापी जीवों में कृपा का भाव तथा विपरीतवृत्ति वाले जीवों में माध्यस्थ भाव रखना चाहिये। इन भावों के कारण से बुद्धि में विकार भाव उत्पन्न नहीं होते तथा व्यक्ति निःस्वार्थ भावना से सतत धर्म निरपेक्षता के प्रति प्रयत्नशील होता है।
धर्म का स्वरूप :
जैनदर्शन के परिप्रेक्ष्य में विविध आचार्यों ने धर्म के स्वरूप का कथन बहु प्रकार से किया है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार में कहा है किदेशयामि समीचीनं धर्म कर्म निवर्हणम्।
संसार दुःखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ॥२
अर्थात् जो जीवों के कर्म नाश करने में सहायक तथा संसार रूपी दुःख से उठाकर सुख में धरता है उस धर्म को कहने की प्रतिज्ञा आचार्य महाराज ने की है। इसी प्रकार अन्य कवियों ने भी कहा है
जो धर्मात्मा पुरुषों को नीचपद से उच्चपद में धारण करता है वह धर्म कहलाता है। संसार नीचपद है तथा मोक्ष उच्चपद है। जो मनुष्य को इस अपार संसार - सागर के दुःखों से उद्धार करके नित्य और अविनाशी सुख वाले मोक्ष में धरे, उसे धर्म जानना चाहिये । यशस्तिलक चम्पू में सोमदेव सूरि महाराज ने अभ्युदय मोक्ष सुख प्राप्त कराने वाले को