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अनेकान्त 64/3, जुलाई-सितम्बर 2011
आयी।
विविहतवरयणभूसा णाणसुची सीलवत्थसोम्मंगा।
जे तेसिमेव वस्सा सुरलच्छी सिद्धिलच्छी य॥ अर्थ- 'मोक्षलक्ष्मी और सुरलक्ष्मी' उन्हीं जीवों के वश में होती है जिनके अंग निरंतर नाना प्रकार के तपों से विभूषित, ज्ञान से पवित्र और शील रूपी वस्त्र के संयोग से सौम्य रहते हैं।
उक्त गाथा में 'मोक्ष' और 'स्वर्ग' को लक्ष्मी कहा है। इस प्रकार लक्ष्मी शब्द व्यक्तिवाची न होकर भाववाची है। जिस प्रकार वैदिक परंपरा में विष्णु जी की पत्नी लक्ष्मी के रूप में पूज्य हैं, वैसी स्थिति दि. जैन परंपरा में नहीं है। यहाँ लक्ष्मी रूपक है। यही स्थिति सरस्वती देवी की है। वैदिक परंपरा में सरस्वती पिता को मोहित करने वाली ब्रह्माजी की पुत्री हैं। जैन परंपरा में द्वादशांगवाणी, केवलज्ञान के प्रतीक रूप में सरस्वती शब्द का उपयोग किया जाता है। इस प्रकार लक्ष्मी और सरस्वती देवी की मूर्तियां प्रतीकात्मक हैं। ये सूर्य-चन्द्रमा जैसे उपमेय नहीं हैं, जिनकी उपमा किसी को दी जाये। प्रतीकात्मक मूर्तियाँ पूज्य कैसे हो सकती हैं? जिनेन्द्रदेव का अस्तित्व है, अत: उनकी मूर्तियां स्थापित होती हैं और पूज्य हैं। द्वादशांग रूप श्रुत देवता व्यक्तिनिष्ठ देव नहीं होते। जिनागम ही श्रुत देवता है।
नरतिर्यग्लोकाधिकार के अनुसार जम्बूद्वीप के हिमवान् आदि छह पर्वतों पर पद्म, महापद्म आदि छह विशाल सरोवर स्थित हैं। गाथा 572 के अनुसार इन सरावरों के कमलों पर श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी नाम की छह देवांगनाएं अपने परिवार सहित निवास करती हैं। इनमें प्रथम तीन सौधर्मेन्द्र की देवकुमारियाँ हैं और अंतिम तीन ईशानेन्द्र की देवकुमारियाँ हैं (गा.577)। इन देवकुमारियों का ऐसा कोई कर्त्तव्य स्पष्ट नहीं है जो उन्हें विशिष्ट सम्मान दिला सके। इसी संदर्भ में त्रिलोकसारजी के टीकाकार श्री पं. टोडरमलजी ने मोक्ष-स्वर्ग और धनरूप लक्ष्मी तथा जिनवाणीरूप सरस्वती की जगत् में उत्कृष्टता दर्शाते हुए उनके देवांगना के आकार रूप प्रतिबिंब होने का समाधान दिया है। विशेष भक्त का संबोधन सर्वाण्हयक्ष और सनत्कुमार यक्ष के लिये किया है, प्रतीकात्मक देवियों के लिये नहीं किया। श्री पं. टोडरमलजी के इस समाधान से लक्ष्मी और सरस्वती देवियों तथा कल्पित शासन देवों की मूर्तियों की पूजा का औचित्य सिद्ध नहीं होता। यह बालू से तेल निकालने जैसा असंभव कृत्य है। देवों द्वारा अपूज्य को विवेकी मनुष्य पूज्य कैसे मान सकते हैं? विचारणीय है। उपसंहार
आचार्य कल्प पं. टोडरमलजी ने मोक्षमार्ग प्रकाशक तथा पं. सदासुखदासजी ने रत्नकरण्डश्रावकाचार की टीका में क्षेत्रपाल, पद्मावती एवं अन्य रागी देवी-देवताओं की पूजा को गृहीत मिथ्यात्व माना है। उनकी इस स्पष्ट आगमिक धारणा को थोथे, विरोधाभासी और उन्माद भरे कुतर्को से विकृत नहीं किया जा सकता। दिगम्बर जैन परंपरा