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अनेकान्त 64/3 जुलाई-सितम्बर 2011
ज्योतिष एवं व्यन्तर देवों के जिनमंदिर असंख्यात हैं, उन्हें भी नमस्कार किया है। गाथा 1017 में त्रिलोकगोचर अकृत्रिम - कृत्रिम सभी जिनमंदिरों की वंदना की है। अंतिम 1018वीं गाथा में गुरु अभयनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती का स्मरण / कृतज्ञता व्यक्त करते हुए त्रिलोकसार जी की किसी भूल के लिये क्षमा याचना की है। इस प्रकार आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने तीनलोक की समस्त जिनेन्द्र प्रतिमाओं और जिनमंदिरों की वंदना - नमस्कार किया है। किसी यक्ष-यक्षिणी, श्रीदेवी - श्रुतदेवी या किसी शासन रक्षकदेव की वंदना नहीं की और न ही उनकी वन्दना करने का निर्देश दिया। चतुर्णिकाय देवों की बन्दना वैदिक परंपरा में इष्ट है, दि. जैन परंपरा में गृहीत मिथ्यात्व है। श्री नेमिचन्द्र आचार्य ने शाश्वत मूल जैन परंपरा का सर्वत्र निर्वाह किया है।
आचार्य वीरसेनस्वामी ने भी धवला टीका (ई. 816) के प्रारंभ में अरहंत सिद्ध को नमस्कार कर बारह अंगरूप श्रुतदेवता के प्रसन्नता की भावना आयी थी । श्रुत देवता के सर्वमल एवं तीन मूढ़ता रहित सम्यक्त्व का तिलक और निर्मल चारित्र रूप आभूषण हैं। (धवला भाग-1, पृष्ठ 6 ) । द्वादशांग धारक ऐसा श्रुत देवता 'देवमूढ़ता' की प्रेरक सरस्वती की मूर्ति कैसे हो सकती है? सरस्वती की मूर्ति की पूजा की प्ररेणा देना जिनवाणी की आड़ में आगम का उपहास और मिथ्याचार है।
चैत्य वृक्षः जिन प्रतिमाएँ एवं मानस्तम्भ
भवनवासी देवों के असुरादिक कुलों के चिह्न स्वरूप क्रम से दस चैत्य वृक्ष होते हैं। (गा. 217) चैत्य वृक्षों के मूल भाग की चारों दिशाओं में प्रत्येक दिशा में पद्मासन से स्थित 5-5 जिन प्रतिमाएँ होती हैं जिन्हें देवगण पूजते हैं (गा. 215)। इन प्रतिमाओं के सामने प्रत्येक दिशा में 5-5 मानस्तम्भ विराजमान हैं। प्रत्येक दिशा 7-7 प्रतिमाओं सहित हैं (गा. 216 ) ।
व्यंतर देवों के 8 चैत्यवृक्ष होते हैं। चैत्यवृक्षों के मूल की प्रत्येक दिशा में 4-4 तोरणों से युक्त पद्मासन स्थित 4-4 जिन प्रतिमाएं देवों द्वारा पूज्य हैं। प्रत्येक प्रतिमा के आगे एक-एक मानस्तम्भ है जो तीन पीठ ऊपर तथा तीन कोटों से घिरा हुआ है (गा. 253-255 ) 1
नरतिर्यग्लोक में भी जम्बूवृक्ष और शाल्मलिवृक्ष आदि में जिनमंदिर स्थित हैं (गा. 562 ) ।
नन्दीश्वर द्वीप के जिनालय
आठवाँ द्वीप नन्दीश्वर के नाम से प्रसिद्ध है। इस द्वीप के 52 पर्वत पर 52 जिनालय हैं। उनमें अन्य देवों और भवनत्रिक के साथ सौधर्मादि कल्पों के 12 इन्द्र अपने विमानों में आरूढ़ हो दिव्य फल एवं पुष्प आदि सहित नन्दीश्वर द्वीप जाकर प्रत्येक वर्ष के आषाढ़, कार्तिक और फाल्गुन मास की अष्टमी से पूर्णिमा तक दो-दो पहर पूजा करते हैं (गा. 973-976)। उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य जिनालयों का आयाम क्रम से 100 योजन, 50 योजन और 25 योजन प्रमाण है ( गा. 983)। सभी जिनालयों के चार गोपुर द्वारों सहित मणिमय तीन कोट हैं। प्रत्येक वीथी में एक-एक मानस्तम्भ और नव-नव स्तूप हैं