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त्रिलोकसार आधारित
सिद्धान्त चक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य की दृष्टि में उपास्य (पूज्य) देव
-डॉ. राजेन्द्र कुमार बंसल
सिद्धान्त चक्रवर्ती आचार्यवर्य श्री नेमिचन्द्र द्वारा विरचित श्री त्रिलोकसारजी की गाथा 988 के आधार पर उपलक्षण न्याय से यह सिद्ध किया जा रहा है कि तीर्थकर भगवान् के यक्ष-यक्षिणी एवं क्षेत्रपालादि समस्त रक्षक देव पूज्य हैं। इस गाथा पर प्रकाश डालने के पूर्व त्रिलोक संबन्धित अकृत्रिम चैत्यालयों/ जिनमंदिरों एवं उनकी पूज्यता का स्वरूप श्री त्रिलोकसारजी के अनुसार समझना आवश्यक है।
श्री त्रिलोकसारजी करणानुयोग का प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसकी रचना का आधार तिलोयपण्णत्ति (त्रिलोकप्रज्ञप्ति), तत्त्वार्थवार्तिक का तीसरा और चौथा अध्याय एवं आ. जिनसेन कृत हरिवंश पुराण का लोकवर्णानाधिकार है। श्री त्रिलोकसारजी के रचयिता आचार्य नेमिचन्द्र षट्खण्डागम के पारगामी विद्वान् थे। उनके गुरु आचार्य अभयनन्दि जी थे। सर्वश्री वीरनन्दी एवं इन्द्रनन्दी इनके विद्यागुरु थे। ये देशीयगण के थे। आचार्य नेमिचन्द्र गंगनरेश राचमल्लदेव के प्रधान सचिव और सेनापति चामुण्डराय के गुरु थे। गोम्मटेश्वर भगवान् की 57 फुट ऊँची भव्य प्रतिमा का निर्माण आचार्य नेमिचन्द्र के आशीर्वाद और मार्गदर्शन में हुआ था। इसकी प्रतिष्ठा चैत्रशुक्ला पंचमी, रविवार दि. 13 मार्च, 981 को आगमिक पद्धति से हुई थी। इस प्रकार आपका समय विक्रम की 10वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है।
श्री त्रिलोकसारजी में 1018 गाथाएँ हैं, जो छह अधिकारों में विभक्त हैं; यथा(1) लोकसामान्याधिकार, (2) भवनाधिकार, (3) व्यन्तरलोकाधिकार, (4) ज्योतिर्लोकाधिकार, (5) वैमानिकलोकाधिकार और (6) नरतिर्यग्लोकाधिकार। अंतिम चार गाथाएं प्रशस्ति रूप हैं। त्रिलोक के जिनमंदिर की वंदना
आचार्य नेमिचन्द्र ने प्रत्येक अधिकार के प्रारंभ में उस लोक के जिनमंदिरों की संख्या दर्शाते हुए उनकी वंदना और नमस्कार किया है।
इस संबन्ध में गाथा 2, 208, 250, 302, 451 और 561 अवलोकनीय हैं। प्रशस्तिगाथा 1015 में अकृत्रिम-कृत्रिम सभी अर्हन्त और सिद्ध प्रतिमाओं को नमस्कार किया है। गाथा 1016 में भवनवासी (सात करोड़ बहत्तर लाख), वैमानिक (84,97023) एवं मध्यलोक (458) संबन्धी कुल 85697481 जिनमंदिरों को नमस्कार किया है।