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अनेकान्त 64/3, जुलाई-सितम्बर 2011 नाम से प्रसिद्ध है। यह ग्रंथ प्रारंभ में मूलतः धर्मविलास के नाम से प्रसिद्ध रहा है। किन्तु परवर्ती काल में बनारसी विलास आदि की तर्ज पर उनकी कुछ स्फुट रचनाओं के संकलित रूप को द्यानतविलास भी कहा जाने लगा और आज यह ग्रंथ धर्मविलास के साथ ही द्यानत विलास के रूप में भी जाना जाता है। अतः मैं डॉ. वीरसागर जैन के इस कथन से पूर्णतः सहमत हूँ कि- जिन रचनाओं का नाम कवि के नाम पर आधारित है, उनका नामकरण कवि ने स्वयं नहीं किया है, अपितु बाद में अन्य प्रस्तुतकर्ता ने उस कवि की छोटी-छोटी अनेक या सभी रचनाओं को एकत्र संग्रहीत कर उसका नाम कवि के नाम पर रख दिया।
इस प्रकार हम देखते हैं कि ग्रंथों के नाम कहीं तो विषय वस्तु पर आधारित हैं और कहीं कवि-विशेष के नाम पर। किन्तु इतना सत्य है कि कवि के नाम पर आधारित ग्रंथों का नामकरण परवर्ती है और यही बात द्यातनविलास इस नामकरण के मूल में प्रतीत होती
धर्मविलास :
महाकवि पण्डित द्यानतराय द्वारा लिखित धर्मविलास में छोटी-बड़ी कुल 45 रचनाओं का समावेश है। ये रचनाएँ विविध विषयों को आधार बनाकर लिखी गई हैं, जिनका नामकरण प्रायः विषय के साथ ही उनकी पद्य संख्या के आधार पर किया गया है। जैसेजिनगुणमाल सप्तमी, यतिगुण भावनाष्टक, दर्शन दशक, ज्ञान दशक, भक्ति दशक, आरती दशक, वर्तमानबीसी दशक, सज्जनगुण दशक, स्तुति बारसी, व्यसनत्याग षोडश, तिथि षोडशी, विवेक बीसी, षट्गुणी-हानिवृद्धि बीसी, दशस्थान चौबीसी, द्रव्यादिचौबोल पचीसी, धर्म पच्चीसी, दशबोल पचीसी, व्यौहार पचीसी, पल्ल पच्चीसी, सुख बत्तीसी, वैराग छत्तीसी, सरधा चालीसी, सुबोध पंचासिका, अध्यात्म पंचासिका, शिक्षा पंचासिका, पूरण पंचासिका, अक्षर बावनी, धर्मरहस्य बावनी, दान बावनी, नेमिनाथ बहत्तरी और उपदेश शतक आदि। चरचा शतक स्वतंत्र रूप से प्रकाशित है। इन रचनाओं में दो-दो पदों का समावेश है। इनमें प्रथम पद उस रचना की विषयवस्तु का द्योतक है और द्वितीय पद उस रचना में प्रयुक्त पद्यों की संख्या का। कहीं कहीं पद्यों की संख्या अधिक भी है।
उपर्युक्त के अतिरिक्त इस धर्मविलास नामक ग्रंथ में महाकवि द्यानतराय ने तत्त्वसार भाषा (79 पद्य), चार सौ छह जीवसमास (23 पद्य), समाधिमरण (23 पद्य), आलोचना पाठ (6 पद्य), एकीभाव स्तोत्र (26 पद्य), स्वयम्भू स्तोत्र (25 पद्य), पार्श्वनाथ स्तवन (10 पद्य), वज्रदन्तकथा (11 पद्य), धर्मचाह गीत (8 पद्य), आदिनाथ स्तुति (36 पद्य), जुगल आरती (20 पद्य) और वाणी संख्या (112 पद्य) नामक शीर्षक वाली रचनाओं का भी समावेश किया है।
इन रचनाओं में 'समाधिमरण' में मनुष्य अन्त समय में किस प्रकार की भावना भावे एवं उसके आहार आदि का क्रम क्या हो? इस पर संक्षेप में विचार किया गया है। 'स्वयम्भूस्तोत्र' में चौबीस तीर्थंकरों की वंदना की गई है। यह स्तोत्र प्रायः किसी भी धार्मिक कार्य के संपन्न होने पर श्रावकों द्वारा समवेत स्वर में पढ़ा जाता है। 'वज्रदन्तकथा'