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पण्डित द्यानतराय और उनका रचना-संसार
-डॉ. कमलेशकुमार जैन *
जैनधर्म मूलत: अध्यात्म-प्रधान धर्म है और वीतरागता उसका प्राण है। अब तक जितने भी जीव मोक्ष गये हैं या भविष्य में जायेंगे, उसमें मुख्य कारण वीतरागता ही है। यहाँ वीतरागता का अर्थ है- आत्मा का रागादि भावों से सर्वथा पृथक् हो जाना। राग संसार है
और वीतरागता उस संसार-सागर से मुक्त हो जाना है। जीव अनादिकाल से कर्मों से बद्ध है और जब तक कर्मों का किञ्चित् भी अंश जीव के साथ संबद्ध रहेगा, तब तक उसे मुक्ति ही प्राप्ति नहीं हो सकती है। अतः मुक्ति के लिये वीतराग-दशा परमावश्यक है।
जीव में यह वीतरागता प्रकट हो, इसके लिये रागादि भावों से निवृत्त होकर आत्म-स्वभाव में तल्लीन हो जाना ही एकमात्र उपाय है। इसलिये महाकवि पण्डित दौलतराम ने अपने छहढाला के प्रारंभिक मंगलाचरण में लिखा है कि
तीन भुवन में सार वीतराग- विज्ञानता।
शिव स्वरूप शिवकार नमहुँ त्रियोग सम्हारिकैं। यद्यपि जीव सांसारिक बन्धनों में जकड़ा हुआ है तथापि जब वह संसार की विचित्र दशा को देखता है और उस पर विचार करता है तो वह अध्यात्म की ओर मुड़े बिना नहीं रहता है, साथ ही यदि वह कवि हृदय है तो वह अपना उपयोग स्थिर करने के लिये अनुभूतियों को लिपिबद्ध करता है, जिससे लेखक या कवि का चित्त स्थिर हो जाता है और उसका लाभ समकालीन लोगों के साथ-साथ आगे आने वाली अन्य अनेक पीढ़ियों को स्वतः मिल जाता है।
इसी मानसिकता को अपने अन्दर समेटे हुये अनेक लेखकों ने अपने हृदयंगत विचारों को मूर्त रूप दिया है, जो संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश आदि विविध भाषाओं में व्यक्त किये गये हैं। लिखे गये हैं। इसी क्रम में हिन्दी भाषा में भी विपुल मात्रा में साहित्य लिखा गया है, जो हिन्दी-साहित्य के नाम से जाना जाता है।
मध्यकालीन हिन्दी-साहित्य यद्यपि अनेक विधाओं का समूह है तथापि आध्यात्मिकता उसका प्राण है और इसी आध्यात्मिकता की पुष्टि हेतु जिन जैन-कवियों ने साधिकार अपनी लेखनी चलाई है, उसमें महाकवि पण्डित बनारसीदास, महाकवि पण्डित द्यानतराय और महाकवि पण्डित दौलतराम का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। अन्य अनेक कवियों के साथ महाकवि बनारसीदास ने जिस परंपरा का विकास किया, उसी को आगे बढ़ाने में महाकवि द्यानतराय की महती भूमिका रही है और उसी परंपरा का अनुसरण
आचार्य एवं अध्यक्ष, जैन-बौद्धदर्शन विभाग, संस्कृतविद्या धर्मविज्ञान संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी