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अनेकान्त 64/3, जुलाई-सितम्बर 2011
इंसान की खोज नहीं करते। यदि इंसान की खोज की गई तो भगवान् तो अपने आप बन जाओगे।
इस प्रसंग में आचार्यश्री ने एक मनोरम दृष्टान्त दिया है कि एक चौबीसी जिनालय में बैल से लेकर सिंह तक सभी तीर्थकरों के चिह्न वाले जानवर इकट्ठे होकर प्रतिमाओं के सामने बैठ गये। उन्हें देखकर एक बुढ़िया मूर्छा खाकर गिर गई। उस मूर्च्छित बुढ़िया को देखकर कर्म सिद्धान्त के ज्ञाता, अध्यात्मवेत्ता धर्मात्मा पुरुष अपने-अपने अधीत ज्ञान की बातें कहकर चले गये परन्तु उस बुढ़िया पर किसी को भी दया नहीं आई। आचार्यश्री कहते हैं कि_ 'सबने कर्मसिद्धांत और आत्मा के उपदेश दिये परन्तु 'धर्मस्य मूलं दया' की चर्चा किसी ने नहीं की। वह मनुष्य ही नहीं है जिसके अन्दर करुणा/ दया की भावना नहीं हो। मनुष्य वही है जिसके अन्दर प्रेम, वात्सल्य, दया, एकत्व दृष्टि छिपी है। जब तक एकत्व दृष्टि नहीं बनेगी, एक सिद्ध में अनेक सिद्ध बनकर कैसे विराजेंगे।18 __'जब तक स्वतत्त्व की प्राप्ति नहीं होती है, तब तक परगत तत्त्व को भूल मत जाना।19 इस प्रकार आचार्यश्री विशुद्धसागर महाराज ने तत्त्वदेशना में हेय-उपादेय की देशना की है। निश्चय ही उनकी यह देशना शास्त्रसमुद्र को गागर में भरने जैसा दुष्कर कार्य है। इस देशना से भव्यों का अनन्त उपकार हो सकेगा- यह असंदिग्ध रूप में कहा जा सकता है। संदर्भः
1. क्षत्रचूडामणि, लम्ब 2, श्लोक 44 3. तत्त्वसार तत्त्वदेशना पृष्ठ । 5. वही, पृष्ठ 3 7. वही, पृष्ठ 8 9. तत्त्वसार तत्त्वदेशना पृष्ठ 35 11. वही, पृष्ठ 65 13. तत्त्वसार तत्त्वदेशना, पृष्ठ 68 15. तत्त्वसार तत्त्वदेशना पृष्ठ 127 17. वही, पृष्ठ 161 19. वही, पृष्ठ 165
2. वही, 45 4. वही, पृष्ठ 1 6. वही, पृष्ठ 130 8. वही, वारसाणुवेक्खा, गाथा 12 10. वही, पृष्ठ 37 12. दिशाबोध, अक्टूबर 2007 पृष्ठ 22-23 14. तत्त्वसार गाथा 49 16. वही, पृष्ठ 126 18. वही, पृष्ठ 163
- अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, एस.डी. (पी.जी.) कॉलेज
मुजफ्फरनगर (उ.प्र.)