________________
अनेकान्त 64/3, जुलाई-सितम्बर 2011
कर दी कि पाठी की आवाज दब गई, यह असमाधि का कारण है। ५. मुक्ति पुरुषार्थ परम उपादेय किन्तु पुरुषार्थत्रय में धर्म पुरुषार्थ उपादेय
तत्त्वसार में आचार्य देवसेन ने कहा है कि देह के रोग, सड़न, पतन, जरा और मरण को देखकर जो भव्य आत्मा को ध्याता है, वह पांच प्रकार के शरीरों से मुक्त हो जाता है। इस कथन से स्पष्ट है कि शरीर के प्रति ममत्व रूप बहिरात्मपना हेय है और शरीरों से मुक्ति रूप मोक्ष पुरुषार्थ परम उपादेय है। किन्तु जब हमारे समक्ष धर्म, अर्थ एवं काम पुरुषार्थ की उपस्थिति हो, तब उस दशा में धर्म पुरुषार्थ ही उपादेय है। भरत चक्रवर्ती का उदाहरण देते हुए आचार्यश्री लिखते हैं_ 'देखो संसार की दशा, एक साथ तीन चीजें प्राप्त हुई- चक्ररत्न प्रकट हुआ, पुत्ररत्न प्राप्त हुआ और तीर्थकर को कैवल्य की प्राप्ति हुई एक समय में। सेनापति संदेश लेकर पहुंच गया कि आयुधशाला में चक्ररत्न प्रकट हुआ है। राजप्रासाद से दासियों की भीड़ आकर कहने लगी कि महारानी को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई है और वनपाल ने आकर संदेश दिया- हे चक्रेश! प्रथम तीर्थकर भगवान् आदिनाथ स्वामी को कैलास पर्वत पर कैवल्य की प्राप्ति हुई। यह था पुण्य का वेग। ज्ञानी जीव यहाँ विवेक लगाता है कि पहले कौन से पुरुषार्थ के फल को भोगा जाये। एक क्षण को स्तब्ध हो गया चक्रवर्ती भरतेश। फिर बोला जिसकी प्राप्ति के लिए मुनिजन भी परिश्रम करते हैं, ऐसे धर्म पुरुषार्थ के फल की प्राप्ति हुई है। अतः तीर्थकर के कैवल्य की पूजा पहले होना चाहिए।"15 ६. आस्रव हेय, संवर-निर्जरा-मोक्ष उपोदय
परम उपादेय मोक्ष की उपलब्धि रागद्वेष की हानि तथा ज्ञान एवं वैराग्य की भावना पूर्वक किये गये तप से होती है क्योंकि संवरसहित तप ही मोक्षसापेक्ष निर्जरा का कारण बनता है। आचार्यश्री तत्त्वसार की 51वीं गाथा की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि
_ 'भो ज्ञानी! कर्म के फल को भोगते समय न राग करो न द्वेष करो। जो कर्म के विपाक में राग-द्वेष नहीं करता, वह पूर्वसंचित कर्म का विनाश कर देता है एवं नये कर्म का बन्ध नहीं करता। यदि रागद्वेष करते रहोगे तो कभी मोक्ष नहीं होगा क्योंकि पूर्व कर्म नष्ट तो हुये, परन्तु नवीन कर्म का बंध हो गया। जो मुमुक्ष जीव होता है, वह पूर्व के कर्म को तो नाश करता है और वर्तमान में किबाड़ बन्द कर लेता है। इसी का नाम संवर है। संवर सहित निर्जरा मोक्षमार्ग में प्रयोजनभूत है और संवर से रहित निर्जरा मोक्षमार्ग में कार्यकारी नहीं है। संवर एवं निर्जरा की प्राप्ति बिना तपस्या के संभव नहीं है। आचार्य भगवान् उमास्वामी महाराज ने तत्त्वार्थसूत्र में कहा है- 'तपसा निर्जरा च'। तप से निर्जरा भी होती है और संवर भी होता है। इसलिए हे मनीषियो! संवर की ओर बढ़ो, निर्जरा की ओर बढ़ो, आस्रव को छोड़ो। आस्रव हेय तत्त्व है, संवर-निर्जरा एवं मोक्ष उपादेय तत्त्व हैं।। ७. दया धर्म भी धर्म का मूल होने से उपादेय
तत्त्वसार की 72वीं गाथा के व्याख्यान में सिद्धों की विवेचना के संदर्भ में आचार्यश्री लिखते हैं कभी-कभी ऐसा होता है कि लोग भगवान् की खोज तो करने लगते हैं, किन्तु