________________
अनेकान्त 64/3, जुलाई-सितम्बर 2011
__ आचार्यश्री सर्वार्थसिद्धि से मिट्टी के नवीन सकोरे में पानी की एक बूंद डालने पर दिखाई न देने का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कहते हैं
'जब हम प्रारब्ध अवस्था में तत्त्वज्ञान को सुनते हैं, तब कुछ मालूम नहीं पड़ता है परन्तु जैसे-जैसे अध्ययन बढ़ता जाता है कि वह ज्ञान विद्वान् के रूप में प्रकट हो जाता है। साथ ही सिद्धांत कहता है कि जिनवाणी के श्रवण मात्र से असंख्यात गुणश्रेणी कर्मों की निर्जरा होती है।
आज समाज में घर में अप्रतिष्ठित प्रतिमा रखकर तथा तीर्थकर या मुनि की फोटो लगाकर उसकी पूजा करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। स्थापना मंगल के व्याख्यान के अवसर पर आचार्यश्री ने इस प्रवृत्ति को उपादेय नहीं मानकर स्पष्टतया उन्हें पूजने योग्य स्वीकार नहीं किया है। वे स्पष्टतया कहते हैं___'जैनशासन में रजतमय, स्वर्णमय, रत्नमय, पाषाणमय, अष्टधातु, मणि आदि निर्मित जिनबिम्ब पूज्यता को प्राप्त हैं। अन्य कागज, प्लास्टिक अथवा केमिकल से बनाई गई प्रतिमा को प्रतिष्ठा शास्त्र में पूजनीय स्वीकार नहीं किया गया है। साथ ही यह भी ध्यान देने योग्य है कि आचार्य, मुनियों व भगवान् की जो फोटो तथा तस्वीरें घरों व मंदिरों में लगी हुई हैं, वे प्रतीक मात्र हैं। वे आदर/सम्मान के योग्य तो हैं परन्तु अष्ट द्रव्य द्वारा उनकी पूजा नहीं करना चाहिए। वे पूजने योग्य नहीं हैं।'
आचार्यश्री जिनवाणी के जानने की अपेक्षा उसे मानने को अधिक उपादेय स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं कि
'ग्रंथराज समयसारजी में आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने लिखा है कि संपूर्ण आगम को कण्ठस्थ कर लो, घोलकर पी जाओ परन्तु जब तक तुम्हारे विषय नहीं घुलेंगे तब तक कल्याण होने वाला नहीं है। प्रवचनसारजी की चरणानुयोग चूलिका में भगवान् कुन्दकुन्द ने बहुत ही गहरा कथन किया है- जिनवाणी को नहीं जानने वालों का कल्याण हो जायेगा पर जिनवाणी को नहीं मानने वालों का कभी कल्याण नहीं होगा। इसलिए वीतरागी वाणी को तुम जानो भी, मानो भी और तदनुसार परिणमन भी करो।" २. निज आत्मा परम उपादेय, पंच परमेष्ठी भी उपादेय, देह हेय
तत्त्व के मुख्य दो भेद हैं- स्वगत और परगत। निज आत्मा से अत्यन्त भिन्न होने के कारण पंच परमेष्ठी को भी परगत तत्त्व कहा गया है। आचार्यश्री कहते हैं
"वे हमारे आराध्य हैं, पर साध्य तो एकमात्र निज परमात्म भाव ही है। उस परम साध्य आत्मदेव की सिद्धि का साधन पंच परमेष्ठी की आराधना है परन्तु साध्यभूत तो मात्र निज आत्मा ही है।" _ 'यथार्थ में निश्चय दृष्टि से निज शुद्धात्मा ही हमारा परम ध्येय है, व्यवहार दृष्टि से पंच परमेष्ठी ध्येय हैं। शेष पदार्थ हेय हैं, ज्ञेय हैं। परम शुद्ध निश्चय नय से निज आत्मा ही ध्येय है, उपादेय है। ग्रंथराज वारसाणुवेक्खा में भी कुन्दकुन्दाचार्यजी ने लिखा है
अरुहा सिद्धाइरिया उवझाया साहु पंचपरमेट्ठी। तेविहु चिट्ठदि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं