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जैनधर्म में नारी की स्थिति
-डॉ. रमेशचन्द जैन जैन कानून
स्त्रियों के विषय में जैन लॉ और हिन्दू लॉ में बहुत अन्तर है। जैन लॉ के अनुसार स्त्रियाँ दायभाग की पूर्णतया अधिकारिणी होती हैं। हिन्दु लॉ में उनको केवल जीवन पर्यन्त (Life estate) अधिकार मिलता है। संपत्ति का पूर्ण स्वामित्व हिन्दू लॉ के अनुसार पुरुषों को ही मिलता है। पत्नी पूर्णतया अर्धागिनी के रूप में जैन लॉ में ही पाई जाती है। पुत्र भी उसके समक्ष कोई अधिकार नहीं रखता है। जैन लॉ में लड़की केवल बाबा (पितामह) की संपत्ति में अधिकारी है। पिता की निजी स्थावर संपत्ति में उसको केवल गुजारे का अधिकार प्राप्त है और अपने जंगम द्रव्य का पिता पूर्ण अधिकारी है, चाहे जिस प्रकार व्यय करे।
हिन्दू लॉ में खानदान मुश्तरिका मिताक्षरा की दशा में मृत भ्राता की विधवा की कोई हैसियत नहीं होती है और वह केवल भोजन, वस्त्र पा सकती है।
जैन लॉ में वह मृत पुरुष के भाग की अधिकारिणी होगी, चाहे उसकी विभक्ति हो चुकी या नहीं हो चुकी है। पुत्र भी जैन लॉ के अनुसार केवल पैतामहिक संपत्ति में पिता का सहभागी होता है और अपना भाग विभक्त कराकर पृथक् कर सकता है। किन्तु पिता की मृत्यु के पश्चात् उस भाग को पायेगा।'
जैन लॉ में विधवा संपत्ति की पूर्ण स्वामिनी होती है। पुत्री या नाती का कोई अधिकार नहीं होता। अत: यदि उसके पति के भाई भतीजे उसको प्रसन्न रखें और उसका आदर और विनय करें तो वह उनको सब धन दे सकती है। स्त्री को स्त्रीधन के व्यय करने का अपने जीवन में पूर्ण अधिकार है। वह उसको अपने भाई भतीजों को भी दे सकती है। ऐसा दान साक्षी द्वारा होना चाहिए।'
एक या अधिक भगिनी पिता के मरे पश्चात् कुंवारी हों तो उनको सब भाई अपने अपने भाग का चतुर्थांश लगाकर ब्याह दें। जिस कन्या का ब्याह हो गया हो, उसको पिता के द्रव्य में भाग नहीं होगा। पिता ने जो कुछ उनको दिया हो, वही उसका धन है। पिता को अपनी स्त्रियों को पुत्रों के समान भाग देना चाहिए। जिस मनुष्य के केवल एक कन्या हो और कुछ संतान न हो तो उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके धन के मालिक पुत्री-दौहित
होंगे।
साहित्यिक विवरण
जैनधर्म में नारियों की पर्याप्त प्रतिष्ठा थी। पति के प्रत्येक कार्य में वे सहयोग दिया करतीं थी। किसी प्रकार की शंका या कार्य उपस्थित होने पर पत्नी नि:संकोच पति के पास जाकर शिष्टाचार पूर्वक निवेदन करती थी। सोलह स्वप्न दिखाई देने पर मरुदेवी पति