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अनेकान्त 64/3, जुलाई-सितम्बर 2011 ५. आचार्य विद्यानन्द- आचार्य विद्यानन्दजी ने सत्यशासन परीक्षा में कहा है कि चित्र देखकर पुरुष कहता है कि यह सजीव चित्र है। यद्यपि चित्र अजीव है लेकिन उसमें जीव की गौण कल्पना की गयी है। यदि जीव का अस्तित्व न होता तो यह चित्र सजीव है, ऐसा कथन नहीं होना चाहिए। इस प्रकार की गौण कल्पनाओं के आधार पर कहा जाता है कि जो सजीव पदार्थ है वही आत्मा है।''
६. वादीभसिंह- आचार्य वादीभसिंह ने स्याद्वादसिद्धि में अर्थापत्ति प्रमाण द्वारा आत्मा की सत्ता को सिद्ध करते हुए कहा है कि धर्मादि का कर्ता आत्मा है, अन्यथा सुख-दु:ख नहीं होते। सुख-दुःख का अनुभव होता है, इसलिए धर्मादि का कर्त्ता आत्मा है। इस प्रकार अर्थापत्ति प्रमाण से आत्मा की सिद्धि होती है।20
७. आचार्य प्रभाचन्द्रक, शब्द, रूप और रसादि ज्ञान किसी आश्रयभूत द्रव्य में रहते हैं क्योंकि वे गुण हैं।
जो गुण होते हैं वे अपने आश्रित द्रव्य में रहते हैं। जैसे रूपादि गुण घड़े के आश्रित
रहते हैं। शब्दादि गुण जिस द्रव्य के आश्रित रहते हैं, वही आत्मा है।। ख. आचार्य प्रभाचन्द्रजी के अनसार ज्ञान, सुख आदि कार्यों का कोई उपादान कारण
अवश्य है क्योंकि ये कार्य हैं। जो कार्य होता है उसका उपादान कारण होता है। जैसे 'घट' कार्य होने से मिट्टी उसका उपादान कारण है। अतः ज्ञान, सुख आदि
को जो उपादान कारण है, वही आत्मा है। ग, न्याय कुमुदचन्द्र में आचार्य ने लिखा है कि- जीवित शरीर किसी की प्रेरणा द्वारा
संचालित होता है क्योंकि यह शरीर इच्छानुसार क्रिया करता है। जो इच्छानुसार क्रिया करता है उसका संचालन अवश्य होता है। जैसे- रथ का संचालक रथी होता है, उसी प्रकार इस शरीर का जो संचालक है, वही आत्मा है। आत्मा-सिद्धि में इन्द्रियों को प्रेरक रूप मानते हुए प्रभाचन्द जी कहते हैं कि श्रोत्रादि इन्द्रियाँ करण हैं। अतः उनका कोई प्रेरक होना चाहिए क्योंकि जो करण होते हैं, वे प्रेरित होकर ही अपना कार्य करते हैं। जैसे बसूला बढ़ई से प्रेरित होकर छेदनादि क्रिया करता है। श्रोत्रादि इन्द्रियां जिससे प्रेरित होकर कार्य करती हैं वही
आत्मा है। ८. मल्लिषेण सूरि- स्याद्वादमंजरी के कर्ता आचार्य मल्लिषेण सूरि ने शरीर के अधिष्ठाता के रूप में आत्मा की सत्ता सिद्ध करते हुए कहा है कि हित रूप साधनों का ग्रहण और अहित रूप साधनों का त्याग प्रयत्नपूर्वक ही होता है क्योंकि वह विशिष्ट क्रिया है। जितनी विशिष्ट क्रियाएं होती हैं, वे प्रयत्न पूर्वक ही होती हैं। जैसे रथ की चलने वाली विशिष्ट क्रिया सारथी के प्रयत्न से होती है, उसी प्रकार शरीर की व्यवस्थित या विशिष्ट क्रिया भी किसी के प्रयत्नपूर्वक होती है। जिसके प्रयत्न से यह क्रिया होती है, वही आत्मा
९. गुणरत्न सूरि- गुणरत्न सूरि के अनुसार 'अजीव' शब्द का प्रतिपक्षी 'जीव' का अस्तित्व अवश्य है क्योंकि अजीव शब्द व्युत्पत्ति सिद्ध और शुद्ध पद का प्रतिषेध करता