________________
46
अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011
चेलोपसृष्टमुनिरिव गृही तदा याति यतिभावम्।।
शि.व.श्राव.सं.प्र.भा.र.श्रा. श्लोक 102 4. किच्चादेसपमाण सव्वं सावज्ज वज्जि दो होऊ।
जो कुव्वदि सामइयं सो मुणि सारिसो हवे ताव।।
शि.व.श्रा.सं.प्र.भा. स्वामी का., श्लोक 56 5. सामायिकाश्रितानां समस्त सावध योग परिहारात्।
भवति महाव्रतमेषामुदयेऽति चरित्रमोहस्य।। शि.व.वही.पु. उपा., श्लोक 150 6, व्यक्तातरौद्रयोगो भक्त्या विदधाति निर्मलध्यान।
सामायिक महात्मा सामायिक संयतो जीवः।।
शि.व.श्रा.प्र.भा. अमितगति श्रावकाचारः श्लोक 86 7. परं तदेव मुक्त्यङ्गमिति नित्यमन्द्रित।
नक्तं दिनान्तेऽवश्यं तद भावयेच्छक्तितोऽन्यदा।। श्रा.सं.द्विभा. सा.ध. 5/29 8. आरोपितः सामायिकव्रत प्रसाद मूर्ध्नि।
कलशस्तेन येनैषा धूरारोहि महात्मना।। वही श्लोक सं. आ. 3
- प्राचार्य श्री दि. जैन आ. संस्कृत महाविद्यालय
वीरोदय नगर, सांगानेर,
जयपुर (राजस्थान)
अशरण संसार संते आउसि जीवह मरणं गलयम्मि णत्थि संदेहो ।
णव रक्खई कोवि तहिं संतं सोसेइ ण हु कोई ।।81।। भावसंग्रह 'अर्थात् जब तक आयुकर्म बना रहता है, तब तक वह जीवित रहता है तथा जब आयुकर्म पूर्ण हो जाता है तब वह जीव मर जाता है। कोई भी देव अथवा भगवान् उसकी रक्षा नहीं कर सकता। आयु के रहते कोई भी उसे मार नहीं सकता है। जिस प्रकार रावण के पास कई विद्यायें और उनके रक्षक देव थे और चक्र भी था फिरभी जब उसकी आयु पूर्ण हुई तो अपने ही चक्र से मारा गया।
अतः किसी भी देवता अथवा भगवान् की पूजा-अर्चा करने से वह मृत्यु से बच नहीं सकता है क्योंकि आयु पूर्ण होने पर मृत्यु होना निश्चित है यही कर्म सिद्धांत है।