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अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011
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__ आचार्य पूज्यपाद स्वामी लिखते हैं कि किसी गुणवान् के दुःख की उत्पत्ति होने पर निर्दोष विधि से उसको दूर करना वैयावृत्य है।
आचार्य अकलंक स्वामी लिखते हैं कि आचार्य आदि पर व्याधि, परीषह, मिथ्यात्व आदि का उपद्रव होने पर उसका प्रासुक औषधि आहार-पान, आश्रय, चौकी, तख्ता और सांथरा आदि धर्मोपकरणों से प्रतिकार करना तथा सम्यक्त्व मार्ग में दृढ़ करना वैयावृत्य है। औषधि आदि का अभाव होने पर अपने हाथ से खकार, थूक, नाक आदि भीतरी मल को साफ करना और उनके अनुकूल वातावरण को बनाना आदि भी वैयावृत्य है।
इसी संदर्भ में आचार्य वीरसेनस्वामी ने भी वैयावृत्य का लक्षण बताते हुए कहा है कि रागादि से व्याकुल साधु के विषय में जो कुछ भी किया जाता है उसका नाम वैयावृत्य है।
___ महामात्य चामुण्डराय जी लिखते हैं कि शरीर की पीड़ा अथवा दुष्ट परिणामों को दूर करने के लिए शरीर की चेष्टा से किसी औषधि आदि अन्य द्रव्य से अथवा उपदेश देकर प्रवृत्त होना अथवा कोई भी क्रिया करना वैयावृत्य है। यह परिभाषा आत्म व्यावृत्ति की ओर संकेत करती है।
चतुर्विध संघ के ऊपर आए हुए उपद्रव को दूर करना ही वैयावृत्य है। इसमें सबसे प्रमुख साधुओं को आहार-दान देना गर्भित है । इसी में अतिथिसंविभाग को भी ग्रहण कर लिया है। उसी दान के स्वरूप को बताते हुए आचार्य समन्तभद्रस्वामी लिखते हैं कि
नवपुण्यैः प्रतिपत्तिः सप्तगुणसमाहितेन शुद्धेन।
अपसूनारम्भाणामार्याणामिष्यते दानम् ॥ अर्थात् सात गुणों से सहित और कौलिक, आचारिक तथा शारीरिक शुद्धि से सहित दाता के द्वारा गृहसम्बन्धी कार्य तथा खेती आदि के आरम्भ से रहित सम्यग्दर्शनादि गुणों से सहित मुनियों का नवधा भक्तिपूर्वक आहार आदि के द्वारा जो गौरव किया जाता है वह दान है।
नवधा भक्ति-आहारदान के नौ सोपान होते हैं, जिन्हें आचार्य नवधा भक्ति के रूप में प्ररूपित करते हैं । वे इस प्रकार हैं -
पड़गाहन, उच्चासन, पादप्रक्षालन, पूजन, प्रणाम, मनशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि, एषण आदि आहारशुद्धि। ये नौ पुण्य कहलाते हैं और इन्हीं को नवधाभक्ति कहते हैं।
पंचसूना-जीवघात के स्थान को सूना कहते हैं । इनको श्रावक न चाहते हुए भी करता ही है क्योंकि इन कार्यों के बिना गृहस्थाश्रम का निर्वहन नहीं हो सकता।' श्रावक को आहार आदि के निर्माण में कुछ अल्प पाप बन्ध होता भी है तो भी वह पतन का कारण नहीं है क्योंकि चतुर्विध संघ को आहार देने से महान् पुण्य का बन्ध होता है । वे पाँच सूना इस प्रकार हैं
1 खण्डनी - उखली से कूटना । 2 प्रेषणी - चक्की से पीसना।