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अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011
इस प्रकार सभी दर्शनों एवं धर्मों में अहिंसा का सर्वोपरि स्थान है और हिंसा न करने की बात कही गई। उसे दार्शनिक एवं धार्मिक जगत् का नरपति बना विश्व सिंहासन पर आरूढ़ कर दिया गया । अहिंसा अन्य व्रतों की अपेक्षा प्रधान एवं उसका स्थान प्रथम है। खेत की रक्षा के लिए जैसे बाद होती है वैसे ही अन्य सभी व्रत अहिंसा की रक्षा के लिए हैं इसलिए अहिंसा की प्रधानता मानी गई है। महावीर ने प्राणीमात्र में संयमभूत अहिंसा को प्रथम स्थान दिया और बताया कि उसके यथार्थ स्वरूप को निष्णात व्यक्ति ही जान सकता है। शेष सत्य आदि चार व्रत तो इसी के संरक्षक मात्र हैं। अहिंसा अनाज है सत्यादि उसकी रक्षा करने वाले बृहद् बाड़े हैं।" अहिंसा जल है और सत्यादि व्रत तो उसी के संरक्षक खेत हैं। बंधन और मुक्ति के प्रसंग में भी हिंसा को ही मूलभूत कारण स्वीकार किया गया। किन्तु जैनधर्म के आधार ग्रंथों में से एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है सूत्रकृतांग। इसके प्रथम अध्ययन के अन्तर्गत हिंसा की बजाय परिग्रह को बंधन का मूल कारण बताया गया है। वहां कहा गया है "परिग्रह ही सब कर्मों का मूल है उसे छोड़कर ही व्यक्ति बंध न से मुक्ति की दिशा में प्रस्थान कर सकता है।" सूत्रकृतांग सूत्र के पहले अध्ययन 'समय'
के पहली दो गाथाओं में ही इस रहस्य को उद्घाटित करते हुए कहा गया है
बुझेज्ज तिउट्टेज्जा बधणं परिजाणिया ।
किमाह बंधणं वीरे? कि वा जाणं तिउट्टइ ? वित्तमंतमचित्तं वा परिगिज्झ किसामवि।
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अण्णं वा अणुजाणइ एवं दुक्खा ण मुच्चई ॥
इसमें कहा गया है कि महावीर ने बंधन किसे कहा है और किसे जानकर उसे तोड़ा जा सकता है। समाधान शैली में कहा गया - परिग्रह बुद्धि (ममत्व) ही बंधन का हेतु है और ममत्व रखने वाला जीव कभी बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता। बंधन मुक्ति के उपायों की चर्चा करते हुए भगवान् महावीर ने कहा बंधन मुक्ति के दो उपाय हैं
1. धन और परिवार में अत्राण दर्शन
2. जीवन का मृत्यु की दिशा में संधावन'
मननशील प्राणी/ मनुष्य का हर प्रयत्न दुःख निवृत्ति और सुख प्राप्ति के लिए होता है और अध्यात्म की भाषा में बंधन दुःख है और मोक्ष / मुक्ति सुख है। अर्थात् आध्यात्मिक दुःख-सुख है- बंध और मोक्ष
कर्म बंध यानी दुःख के हेतुओं की चर्चा जैनधर्म की एक मौलिक चर्चा है। कर्म का इतना सूक्ष्म और विशद विवेचन अन्य कहीं उपलब्ध नहीं होता। उस विशद चर्चा का सार यह है कि बंध के दो मुख्य हेतु हैं
1. आरंभ (हिंसा) 2. परिग्रह
हिंसा की चर्चा हम पहले कर चुके हैं। उनके अतिरिक्त राग-द्वेष, मोहादि भी बंधन के कारण माने गये हैं पर इन सबकी धुरी एक है- परिग्रह। आज हम देख रहे हैं। जितनी भी हिंसा हो रही है पर्यावरण प्रदूषण एवं उसका दोहन आदि उसका मूल कारण है- परिग्रही दृष्टिकोण आज मनुष्य की लालसा बढ़ती जा रही है जितना है उससे और