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जिनप्रतिमा और जिनपूजनः एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण
-प्राचार्य पं. निहालचंद जैन
श्रावक के षट्कर्मों में जिनदेव पूजा का प्रथम स्थान है। पूजा-भक्ति और गुणस्तवन के माध्यम से श्रद्धा की अभिव्यक्ति होती है। पूजा के द्वारा भक्त अपनी प्रणति को इतना प्रांजल और समर्पित करना चाहता है कि पूजा की प्रशस्तताएँ विलीन होकर प्रणाम का व्यवहार ही समाप्त हो जाए। यानि पूजा करने वाला एक दिन स्वयं पूज्य बन जाता है। पूजा है-जीवन को पूर्णता की ओर ले जाना और पल-प्रतिपल आनंद में जीने का भाव। जैन संस्कृति में परमात्मा पद को प्राप्त व्यक्ति विशेष की प्रतिकृति-प्रतिमा कहलाती है, जबकि मूर्ति (Statue) किसी भी व्यक्ति की ऐसी प्रतिकृति होती है जो उसके बाहरी रूप से अधिक साम्य हो। 'चैत्य' शब्द भी प्रतिमा के लिए संज्ञित है।
पूजा का ध्येय है मूर्त से अमूर्त की यात्रा। देवी या गणेश की मूर्ति बिठाकर फिर उसका विसर्जन कर देते हैं। इसके पीछे बड़ा रहस्य है- "इधर बनाओ मूर्ति आकार में
और पूजा की पूर्णता हो निराकार में उसको विसर्जित करके। मूर्ति का अपना महत्त्व है और इसके पीछे अतीत का प्रामाणिक इतिहास है। मंदिर में ही पूजा क्यों की जाती है? इसका एक वैज्ञानिक चिंतन है। जिनपूजन के लिए आवश्यक है बाह्य शुद्धि के साथ अंतरंग शुद्धि। पूजा के दो रूप हैं- तदाकार स्थापना और पुष्पादि में स्थापना। पूजन 6 प्रकार से करना चाहिए- प्रस्तावना, पुराकर्म, स्थापना, सन्निधापन, पूजा और पूजा का फल। पूजा पाँच प्रकार की होती है-नित्यमह पूजा, आष्टाह्निक पूजा, चतुर्मुख महामह पूजा, कल्पद्रुम पूजा
और ऐन्द्रध्वज पूजा। जो अष्ट द्रव्यों के साथ महोत्सव पूर्वक की जाती है। पूजन के अवांतर 6 भेद भी कहे गये हैं- नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। पूजन करने का अपना एक वास्तु है। किस दिशा में मुँह करके पूजन की जावे और उसका क्या फल होता है? इक्कीस प्रकार की जिनराज की पूजन है- जिसे जो प्रिय हो उसे भावपूर्वक करें। जिनेन्द्र भगवान् की पूजन करने का सर्वोत्तम फल यह है कि पूजक, उन्हीं की भांति पूज्य बन जाता है। उससे सांसारिक वैभव, समृद्धि, पुण्यादि चरमोत्कर्ष के रूप में प्राप्त होकर परम आत्म-विशुद्धि पूर्वक केवलज्ञान रूपी साम्राज्य प्राप्त होता है।
आचार्य पद्मनंदी ने श्रावक के षट्कर्म बताये हैं
देवपूजा गुरुपास्तिः, स्वाध्याय संयमस्तपः।
दानं चेति गृहस्थानां, षट्कर्माणि दिने दिने॥
उक्त छह कर्तव्यों में 'देवपूजा' को प्रथम स्थान दिया है। वह देव कैसा हो जिसकी पूजा की जाए? उत्तर है- वह अठारह दोषों से रहित वीतरागी हो, विश्व के संपूर्ण पदार्थों का ज्ञाता यानि सर्वज्ञ हो और हितोपदेशी हो, ऐसा अर्हन्त देव परमात्मा पूज्य है जैसा