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अनेकान्त 64/3, जुलाई-सितम्बर 2011
कि आचार्य समंतभद्र ने कहा है
आप्तेनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना।
भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत्॥
जो पूजा, पूजक को पूज्य बना दे, ऐसी पूजा ही उस पूजा का सही फल है। आचार्य कुंदकुंददेव (प्रथम शती ई.) ने मानव के चार कर्तव्य बताये हैं-दान, पूजा, तप और शील। वैदिक और श्रमण सभी ने पूजा/ उपासना को स्वीकृति (मान्यता) दी है। हाँ इतना अवश्य है कि कोई निर्गुण उपासना को मानता है तो कोई सगुण उपासना को। सगुण उपासना वाला मूर्ति या प्रतिमा के माध्यम से भगवत्पूजन करता है।
'पूजा' श्रद्धा की अभिव्यक्ति है। भक्ति और स्तुतियों के माध्यम से श्रद्धा घनीभूत हो, पूजा के रूप में नर्तन करने लगती है। भक्त, अपने आराध्यदेव के गुणों से इतना सम्मोहित हो जाता है कि उन जैसा बन जाने की अभिलाषा अपनी पूजा में करने लगता है। जैनधर्म में व्यक्ति विशेष की पूजा का विधान नहीं है बल्कि मूर्तमान की उस गुणराशि की पूजा है जो स्वात्मदर्शन के लिए परम सहायक है। भक्त भगवान् के समक्ष प्रणाम करता हुआ भावना करता है कि भगवन्! आपके और हमारे बीच की दूरी ने प्रणाम को स्थापित किया है। आपके सन्निकट आकर इस बीच के अन्तर को समाप्त कर जब आपके स्वरूप को आत्मसात कर लेंगे तो प्रणाम का यह व्यवहार ही समाप्त हो जायेगा। हमारा प्रणाम इतना प्रांजल और समर्पित बन जाये, हमारी प्रणति इतनी पारदर्शी एवं विशुद्ध बन जाये कि पूजा की प्रशस्तताएँ ही विलीन हो जायें। वीतराग जिनदेव की पूजा की यह अद्भुत विशेषता है कि पूजा करने वाला एक दिन स्वयं पूज्य बन जाता है। जिनदेव की पूजा-उनकी प्रसन्नता के लिए नहीं बल्कि आत्मा को पवित्र करने के ध्येय से की जाती है।
न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे, न निन्दया नाथ विवान्तवैरे।
तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः, पुनाति चिन्नं दुरिताञ्जनेभ्यः।।
पूजा का लक्ष्य होता है, चित्त की चंचलता को समेटना, मन की कल्मषता को धोना और अहंकार शून्य हो जाना। पूजा यानि संपूर्ण समर्पण। अपने उपाधिजन्य अस्तित्व का विसर्जन। पूजा है-आत्मोत्कर्ष की वह भाव दशा, जहाँ किसी सांसारिक विकल्प के लिए कोई स्थान न रहे। श्रावक के शेष पाँच कर्त्तव्य-जिनपूजा के ही अनुप्रयोग हैं। गुरु उपासना यानि निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनि की भक्ति, वैय्यावृत्ति आदि क्या पूजा की कोटि में नहीं आती? स्वाध्याय, संयम और तप-ये आत्मशोधन की आध्यात्मिक प्रक्रिया हैं अस्तु निश्चय से ये आत्मपूजा हैं। इसी प्रकार 'दान' पर पदार्थ से निर्ममत्व की चेतना का विकास है। पूजा से जो 'भेद-विज्ञान' अनुभव किया उसको जीवन के विज्ञान में चरितार्थ करना।
जीवन को पूर्णता की ओर ले जाना है-पूजा वर्तमान के एक-एक समय में आनंद में जीने का काम है-पूजा
पूजा की पारलौकिकता पर ज्यादा विचार न करके वर्तमान में जागरूक, अप्रमादी, नियंत्रित और संयमित रूप से जीने का भाव पूजा की निष्पत्तियाँ हैं। पूजा को भविष्य की कामना से न जोड़ें कि स्वर्ग, संपदा, सुख वैभव उपलब्ध होगा बल्कि उस अनुभूति से