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अनेकान्त 64/3, जुलाई-सितम्बर 2011
हमारे देश में हजारों साल तक मूर्तियाँ बनायीं और फिर उन्हें विसर्जित की। देवी या गणेश की मूर्ति बिठाते हैं, बनाते हैं, सजाते हैं, फिर उन्हें पानी में डालकर विसर्जित कर देते हैं। इस विसर्जन के पीछे बड़ा रहस्य है। बनाओ मूर्ति आकार में और मिटाओ निराकार में। गहरे अर्थ में पूजा की पूर्णता तो निराकार में होती है। उसका मिटाना या विसर्जन बड़े चिन्मय अर्थों में है जबकि उसका बनाना है मृण्यम अर्थों में। पूजा का आरंभ आकार मूर्ति से होता है और उसकी पूर्णता निराकार में, मूर्ति के विदाई में होता है।
ऐसा ही प्रश्न, जैसा मेरे मानस में उत्पन्न हुआ है, एकबार किसी भक्त ने चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज से किया था। आचार्य श्री ने उसका उत्तर दिया था-"अहंतदेव की पूजा 'पुष्प' के समान है और आत्मदर्शन रूप निराकार परमात्मा की उपासना 'फल' के समान है।" देव आराधना के बिना आत्मदर्शन रूप ज्ञान प्राप्त नहीं होता। ठीक उसी प्रकार जैसे फूल के बिना फल नहीं हो सकता। जिनप्रतिमा की पूजा मुक्तिमार्ग की प्रथम सीढ़ी है। आज की गई हमारी पूजा आगे विकसित होती हुई जब आत्म विकास के मुक्तायन में प्रवेश करेगी तो मंदिर में की जाने वाली पूजा की पंखुड़ियाँ स्वयमेव झड़ने लगेंगी और मोक्षफल की प्राप्ति होगी। अहंत भगवान् की पूजा ही समस्त दु:खों का निवारण करके कामधेनु एवं कल्पवृक्ष के समान मनोवांछित फल देने की सामर्थ्य रखता है। जैसा कि आचार्य समन्तभद्रस्वामी रत्नकरण्डश्रावकाचार में लिखते हैं
देवाधिदेवचरणे परिचरणं सर्वदुःखनिर्हरणम्।
कामदुह कामदाहिनी परिचिनुयाद्रादतो नित्यम्॥ मूर्ति का महत्त्व
इतिहास इस बात का साक्षी है कि एकलव्य ने बिना गुरु के उनकी मूर्ति का निर्माण किया और उस मूर्ति का ध्यान करके एवं उनके गुणों का स्मरण करते हुए धनुर्विद्या का ज्ञान प्राप्त किया था। स्वामी विवेकानंद, श्री अलवरनरेश से इसलिए मिलने गये थे कि उन्होंने अंग्रेजों और यूरोपीय सभ्यता से प्रभावित हो मूर्ति पूजा छोड़ दी थी। विवेकानंद ने तर्क और अपने ज्ञान प्रभाव से मूर्ति की पूज्यता और महत्त्व समझाया। कुण्डलपुर के बड़े बाबा आदिनाथ भगवान् की मनोरम मूर्ति का भंजन करने के उद्देश्य से महमूद गजनवी अपने साथियों के साथ आया परन्तु जैसे ही उसने मूर्ति पर प्रहार किया उसमें से दूध की धारा निकल पड़ी। इस चमत्कार से वह डर गया। इतने में ही हजारों मधुमक्खियों ने उसे काटना प्रारंभ कर दिया और वह जान बचाकर भागा। सन् 1755 में हैदरअली दक्षिण भारत पर विजय हासिल कर श्रवणबेलगोला की विशाल सुंदर मूर्ति को तोड़ने के विचार से आया लेकिन वह अवाक् खड़ा रह गया। वैराग्यपूर्ण, त्याग और शांति का संदेश देती उस प्रतिमा ने हैदर के हृदय को परिवर्तित कर दिया, कतिपय उक्त घटनाओं से मूर्ति की जीवंतता स्वयंसिद्ध होती है। मंदिर में ही पूजा क्यों?
मंदिर का वास्तु इस प्रकार का है कि हमारी ध्वनि, हमारी पुकार पुनः लौटकर आ जाए। मंदिर का गुम्बज और गर्भगृह अर्द्धगोलाकार ठीक आकाश की छोटी प्रतिकृति