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अनेकान्त 64/3, जुलाई-सितम्बर 2011
२९ प्रकार की जिनराज पूजा है-१९
स्नान पूजा, विलेपन पूजा, आभूषण पूजा, पुष्प पूजा, सुगंध पूजा, धूप पूजा, प्रदीप पूजा, फल पूजा, तन्दुल पूजा, पत्र पूजा, पुंगीफल पूजा, नैवेद्य, जल, वसन, चमर, छत्र, वादित्र पूजा, गीत पूजा, नृत्य पूजा, स्वस्तिक पूजा और कोषवृद्धि पूजा जिसे जो प्रिय हो उसे भावपूर्वक करें।
शांतकार्य में श्वेत, जयकार्य में श्याम, कल्याणकार्य में रक्त, भयकार्य में हरित, धनादि के लाभ में पीत और सिद्धि के लिए पंचवर्ण के वस्त्र पहनकर उसी वर्ण के पुष्पादि से पूजन करें। यद्यपि निर्माल्य वस्तु का ग्रहण दोष कारक है तथापि गंधोदक को ग्रहण करना शुद्धि के लिए तथा आशिका को ग्रहण करना संतान वृद्धि के लिए माना जाता है। सुगंधित चंदन केशर को ग्रहण करना दोष का भागी नहीं है। पूजन करने का फल-२०
1. भव्य जीवों को छह खण्ड पृथ्वी से सुशोभित तथा रत्न और निधियों से विभूषित चक्रवर्ती की विभूति की प्राप्ति।
2. तीर्थकर पद की प्राप्ति। 3. त्रिकाल पूजा करने वाले को समस्त भोगों को भोगकर मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति।
4. कल्पवृक्ष और कामधेनु के समान अभिवांछित पदार्थों की प्राप्ति चिंतामणि रत्न के समान जिनपूजा का फल है।
5. असह्य रोग तथा डाकिनी, शाकिनी, पिशाच, दुष्ट, शत्रु, चोर, कोतवाल, राजा आदि से उत्पन्न हुए समस्त उपद्रव नष्ट हो जाते हैं।
6. तीनों लोकों की लक्ष्मी स्वयंवर करती है। 7. भारी लाभ होता है। 8. समस्त गार्हस्थिक कार्य निर्विघ्नता पूर्वक संपन्न हो जाते हैं।
9. जो मंदिर जी में छत्र, चमर आदि समर्पण करते हैं उन्हें स्वर्ग का साम्राज्य प्राप्त होता है।
10. जो जिनालय में धर्मोपकरण देते हैं वे भोगोपभोग के उपकरण प्राप्त करते हैं। 11. सिद्धांत ग्रंथों के प्रकाशन में द्रव्य देने वालों का ज्ञान एवं सुख सफल माना जाता
12. जिस प्रकार बहुत समय से इकट्ठे किये हुए समस्त काष्ठ समूह को अग्नि क्षण मात्र में जला देती है उसी प्रकार पूजन से जन्म-जन्म के संचित पापकर्म नष्ट हो जाते हैं। 13. एकापि समर्थेयं जिनभक्तिं दुर्गतिः निवारयितुम्।
पुण्यानि च पूरयितुं दातुं मुक्तिश्रियं कृतिनः॥२१ ___14. यद्यपि जिनेन्द्र भगवान् को अपनी पूजा से क्या प्रयोजन है? किन्तु जो धर्मतत्त्व के जानकार हैं वे जिनेन्द्र भगवान् के चरण युगल को पूजते हैं उन्हें केवलज्ञान रूपी साम्राज्य प्राप्त होता है।