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अनेकान्त 64/3, जुलाई-सितम्बर 2011
जाती है।
अर्घ्य- अष्ट कर्म रहित और सम्यक्त्वादि आठ गुणों से विभूषित सिद्धचक्र का अष्ट द्रव्यों से पूजन करता हूँ। अहंत पद की प्राप्ति के लिए अर्घ्य समर्पित किया जाता है।
महाऱ्या सिद्धपद की प्राप्ति हेतु एवं पूर्णाऱ्या निर्वाण कल्याण की प्राप्ति हेतु चढ़ाया जाता है।
यहाँ यह शंका उठाई जा सकती है कि सचित्त पदार्थ से पूजन करने से तो सावध (आरंभ) होता है। समाधान- जिनपूजन से जन्म-जन्म में उपार्जित पापकर्म क्षणमात्र में नाश हो जाते हैं तो क्या अत्यल्प सावध कर्म नाश नहीं होगा? अवश्य होगा। यदि केवल विष खाया जाये तो नियम से प्राणों का नाश होगा, परन्तु वही विष मरीचादि उत्तम औषधियों के साथ खाया जाय तो जीवन दान देता है। उपायान्तर से उपयोग में लाई गई वही वस्तु गुणकारक हो जाती है। उसी प्रकार कुटुम्ब के लिए किया गया आरंभ आदि पापकारक होता है, परन्तु धर्म के अर्थ किया गया वही आरंभ हिंसा को केवल लेशमात्र कारण माना जाता है। उस अधिक पुण्य समूह में सावध का लवदोष (पाप) का कारण नहीं हो सकता है जिस प्रकार विष की एक कणिका समुद्र के जल को बिगाड़ नहीं सकती। फोड़ा चीरने में दु:ख देना भी लाभदायक होता है अत: जिनधर्म की प्रभावना करने में तत्पर भव्यों के आरंभ भी पुण्योत्पत्ति का कारण है। पूजन के अवान्तर ६ भेद कहे गये हैं
१. नाम २. स्थापना ३. द्रव्य ४. क्षेत्र ५. काल ६. भाव । १. नाम- जिनेन्द्रादिक का नामोच्चारण करके शुद्ध प्रदेश में पुष्पादि क्षेपण करना।
२. स्थापना- सद्भाव स्थापना पूजा में साकार वस्तुओं में गुणों का आरोप किया जाता है। असद्भाव स्थापना में वराटक (कमलगट्टा) आदि में जिन भगवान् की कल्पना नहीं की जानी चाहिए।
३. द्रव्य- सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्य पूजा के 3 विकल्प हैं।
४. क्षेत्र- जिन क्षेत्रों में तीर्थकर भगवान् के गर्भ, जन्म, दीक्षा, ज्ञान और निर्वाण कल्याणक हुए उनका अष्ट द्रव्यों से पूजन करना।
५. काल- जिस दिन अहंत भगवान् के गर्भ, जन्म, दीक्षा आदि कल्याणक हों, उस दिन या नंदीश्वर पर्व में या रत्नत्रय, दशलक्षण पर्व में पूजन करना।
६. भाव- अनन्त चतुष्टय से युक्त जिन भगवान् के गुणों की स्तुति पूर्वक जो त्रिकाल सामायिक की जाती है वह भाव पूजा है। पंच परमेष्ठियों का नाम स्मरण करना भी भाव पूजन है।
बिना तिलक लगाये पूजन नहीं करना चाहिए। 9 स्थानों पर तिलक चिह्न लगाना चाहिए। मध्याह्न में पुष्पों से तथा संध्या दीप-धूप से पूजन करना चाहिए। अरिहंत भगवान् के दक्षिण भाग में दीपक स्थापित करना चाहिए और अरहंत देव के दक्षिण भाग में बैठकर ध्यान करना चाहिए। पुष्पों के अभाव में पीले अक्षत से पूजा करें।