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अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011
से अकालमरण सिद्ध होता है। जैसे- अष्टांग आयुर्वेद को जाननेवाला अतिनिपुण वैद्य यथाकाल वातादि के उदय के पूर्व ही वमन विरेचन आदि के द्वारा अनुदीर्ण ही कफ आदि दोषों को बलात् निकाल देता है, दूर कर देता है तथा अकालमृत्यु को दूर करने के लिये रसायन आदि का उपदेश देता है। अन्यथा यदि अकालमरण नहीं हैं तो रसायन आदि का उपदेश व्यर्थ है। रसायन का उपदेश है, अतः आयुर्वेद के सामर्थ्य से भी अकालमरण सिद्ध होता है। "
निश्चय नय को सर्वोत्कृष्ट और व्यवहार नय को झूठा कहने वाले कुछ एकान्ती प्रवचनकार अकालमरण को स्वीकार नहीं करते हैं। वे कहते हैं कि निश्चय नय की अपेक्षा से अकालमरण नहीं होता है। उनका यह कथन नयविषयक अज्ञान को ही दर्शाता है। वास्तविकता यह है कि जन्म और मरण निश्चय नय की अपेक्षा नहीं है, व्यवहार नय की अपेक्षा है। जब निश्चय नय से मरण ही नहीं होता है, फिर अकालमरण नहीं होता, यह कहने की आवश्यकता नहीं है।
व्यवहार नय कर्म सापेक्ष होता है और निश्चय नय कर्म निरपेक्ष, अतः आयुकर्म के क्षय से मरण होता है, यह वाक्य निश्चय नय से नहीं कहा जाता है, अपितु व्यवहार नय से ही कहा जाता है। इसी प्रकार से देवादि के अतिरिक्त शेष जीवों का अकालमरण भजनीय है, यह कथन भी व्यवहार नय से कहा जाता है, निश्चय नय से नहीं।
कुछ एकान्तवादी पण्डितमानी यह कहते हैं कि सांसारिक दृष्टि में अकालमरण भले ही हो, परन्तु सर्वज्ञ की दृष्टि में सभी का सकालमरण ही होता है। यह तर्क भी असंगत है। जिस संसार को हम रंग-बिरंगा देखते हैं, क्या सर्वज्ञ की दृष्टि में वह कुछ अन्य प्रकार से दिखेगा? लेखनी की यह नीली स्याही क्या सर्वज्ञ की दृष्टि में लाल हो सकती है ? कदापि नहीं हो सकती, अन्यथा वे उन्मत्तवत् कुछ का कुछ देखने जानने वाले हो जायेंगे। सर्वज्ञ की दृष्टि में भी यही प्रतिभासित होगा कि 90 वर्ष की आयु पूर्ण करने से पहले ही वह जीव (50 वर्ष की आयु में) मरण को प्राप्त हुआ/ हो रहा है / होगा। अतः यह अकालमरण है।
यदि अकालमरण वास्तव में होता ही नहीं हो सकता भी नहीं है, तो वाहनों से भरे हुए मार्ग में हमें आँखें बन्द करके दौड़ना चाहिये, जानलेवा भी रोग होने पर चिंतित नहीं होना चाहिये, चिकित्सकों और वैद्यों के पास नहीं जाना चाहिये, तैरना नहीं आने पर भी बाढ़ के पानी में कूद जाना चाहिये, तेज रफ्तार से आती हुई ट्रेन के सामने खड़े हो जाना चाहिये, दिन-रात धूम्रपान करना चाहिये, 25वीं मंजिल से कूदने का शौक रखना चाहिये, हवाई जहाज से भी बिना पैराशूट के छलांग मारनी चाहिये, जलते हुए घर में चैन से सो जाना चाहिये इत्यादि । परन्तु एक अबोध पुरुष भी जानबूझकर ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहता है क्योंकि उसे मालूम है कि इन सबसे अकारण मृत्यु हो जायेगी। अतः प्रत्येक जीव आचार्य उमास्वामी की इस दृष्टि का पूर्ण सम्मान करता है और उसे स्वीकार भी करता
है।