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अकालमरणः आचार्य उमास्वामी की दृष्टि में
पुलक गोयल
श्रमण संस्कृति का प्रवाह अनादिकाल से है। तीर्थंकरों ने समय-समय पर इस संस्कृति का प्रवर्तन किया है। तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि से सृजित द्वादशांग श्रुतज्ञानरूपी सूर्य से श्रमण संस्कृति प्रकाशमान होती है। वर्तमान में इस ज्ञान का आंशिक प्रकाशमात्र उपलब्ध है। इस न्यूनातिन्यून संरक्षित ज्ञान का पूर्ण श्रेय श्रमण संस्कृति के नायक, सांसारिक विभूतियों से विरक्त और सर्वजनहिताय सर्वजनसुखाय की भावना से ओतप्रोत आचार्यों की विशाल श्रंखला को जाता है।
अशेष-पदार्थ- वेत्ता आचार्य उमास्वामी अपरनाम आचार्य गृद्धपिच्छ का इस स्वर्णिम श्रृंखला में महत्त्वपूर्ण स्थान है। आपके द्वारा विरचित सूत्रग्रंथ 'तत्त्वार्थ' का अध्ययन प्रत्येक जैन दार्शनिक का प्राथमिक अनिवार्य कर्त्तव्य है। वस्तुतः समग्र जैनधर्म और दर्शन के बीज इस ग्रंथ में निहित हैं। संस्कृत भाषा में निबद्ध यह ग्रंथ जैन परंपरा का प्रथम और सर्वाधिक अधीत सूत्र साहित्य है। आचार्य समन्तभद्र, आचार्य पूज्यपाद, आचार्य अकलंक, आचार्य विद्यानंद आदि जैन तार्किक, दार्शनिक, वैयाकरण भी इस ग्रंथ पर टीका लिखने का लोभ संवरित नहीं कर पाये इस ग्रंथ का प्रत्येक सूत्र जैन वाङ्मय के लाखों पृष्ठों का मूलाधार है।
आचार्य उमास्वामी की दृष्टि में अकालमरण
आचार्य उमास्वामी ने अपने एकमात्र ग्रंथ 'तत्त्वार्थसूत्र में अकालमरण शब्द का प्रयोग नहीं किया है। तथापि दूसरे अध्याय के अंतिम सूत्र में आपने 'अनपवर्त्यायुष्क जीवों" का निर्देश किया है। इस सूत्र पर टीका करते हुए प्राय: सभी टीकाकारों ने अवशिष्ट जीवों के अकालमरण की भजनीयता प्रकट की है। इस सूत्रवाक्य के आधार से विभिन्न आचार्यों ने अकालमरण के विभिन्न कारणों पर भी दृष्टिपात किया है। अधिकांश जैनाचायों ने संसार की अनित्यता, शरीर के प्रति विरक्तता, परभव संबन्धी दुःखों से भय आदि विषयों पर व्याख्यान हेतु इस सिद्धांत का पूर्ण समर्थन किया है। चिकित्सा विषयक शास्त्रों का सृजन भी इस अकालमरण की अवधारण का संपुष्ट प्रतिफल है, जो इसकी भजनीयता को देखते हुए इससे बचने का कार्य करता है। जीवदया का मार्मिक उपदेश भी इस सिद्धांत की सत्यता स्वीकारने पर ही उपयोगी और अनुपालन योग्य है। यह कहना गलत नहीं होगा कि अकालमरण उतना ही सत्य है, जितना जीवन और मरण का संबन्ध ।
अकालमरण का स्वरूप
शास्त्रों में अकालमरण के अनेक नामान्तर प्राप्त होते हैं। आचार्य कुन्दकुन्दस्वामी अकालमरण को ‘अवमिच्चु' (अपमृत्यु) कहते हैं।' सर्वार्थसिद्धि में आचार्य पूज्यपादस्वामी