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अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 अधिक पाने की चाह पैदा हो गई है। भगवान् महावीर ने कहा
सुवण्णरूपस्स उ पव्वया भवे सिया हु केलाससमा असंखया। नरस्स लुद्धस्स न तेहिं किंचि इच्छा उ आगाससमा अणंतिया।।
(उत्तराध्ययनसूत्र. 9.48) करोड़पति चाहता है मैं अरबपति बनूँ और इसके लिए वह किसी भी हद तक नीचे गिरने को तैयार है, कुछ भी करने को तैयार है। बढ़ता हुआ आतंकवाद इसका जाज्वल्यमान उदाहरण है। इन सबका मूल कारण क्या? मूल कारण है-परिग्रह। आज धन कुछ व्यक्तियों के मध्य विकेन्द्रिय हो गया है और हमारी अर्थ व्यवस्था का ढांचा भी कुछ इस तरह का है कि इसमें अमीर और अमीर होता जा रहा है और गरीब और गरीब। विश्व की ऐसी दयनीय स्थिति को देखते हुए ही महान् दार्शनिक विवेकानन्द आचार्य महाप्रज्ञ ने लिखा है
आकाश में तारे हैं वे नीचे आना चाहते हैं धरती पर वृक्ष हैं वे ऊपर जाना चाहते हैं संतोष ऊपर भी नहीं है
नीचे भी नहीं है। और इसी असंतोष अतृप्ति की फलश्रुति है- हिंसा, आतंकवाद। जब तक व्यक्ति के परिग्रह की चेतना रहती है तब तक व्यक्ति अहिंसक नहीं बन सकता।
___ भगवान् महावीर ने ये कभी नहीं कहा कि- धन मत रखो, संपत्ति मत रखो क्योंकि जीवनयापन के लिए धन भी आवश्यक है, संपत्ति भी जरूरी है। ये परिग्रह नहीं है परिग्रह है इनके प्रति होने वाला मूर्छा भाव, ममत्व भाव। जहां ममत्व बुद्धि जुड़ जाती है वहां धन-दौलत, स्त्री, पुत्र, स्वजन और शरीर आदि सभी परिग्रह हैं। मैं और मेरापन एक ऐसा भाव है जिनसे व्यक्ति बंध जाता है और फिर वह इनके लिए हिंसा भी कर सकता है, झूठ भी बोल सकता है, चोरी भी कर सकता है और अब्रह्म का सेवन भी कर सकता है अर्थात् जब तक परिग्रह की साधना नहीं सधती तब तक वह बंधन मुक्ति की ओर अग्रसर नहीं हो सकता।
परिग्रही व्यक्ति की ऐसी चेतना रहती है कि वह अप्राप्त परिग्रह की तीव्र आकांक्षा रखता है, प्राप्त के संरक्षण हेतु विविध आयाम करता है और जो नष्ट हो गया है उसके लिए अनुताप करता है और इसी चिंतन में अपने जीवन के अमूल्य क्षणों को नष्ट करता हुआ वह बंधन को और अधिक गाढ़ बना देता है। क्योंकि ईधन डालने से कभी आग शान्त नहीं होती वैसे ही उपभोग से कभी तृप्ति नहीं मिलती और व्यक्ति की परिग्रह दृष्टि और बढ़ती जाती है।
बंधन मुक्ति के उपायों की चर्चा करते हुए सूत्रकृतांग सूत्र में कहा गया- बैर की परंपरा को विच्छिन्न करो लेकिन जब परिग्रह है, ममत्व है, तब तक व्यक्ति/ प्राणी के प्राण