________________
अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011
91 वियोजन मर्म-छेदन आदि किसी से नहीं घबराता और इस तरह वह एक लम्बी बैर परंपरा का सृजन कर लेता है और दु:ख की परंपरा को बढ़ा देता है। एक दु:ख से मुक्त होकर दूसरे दुःख में फंस जाता है।
बंधन से मुक्त होना है तो व्यक्ति को ममत्व बुद्धि का परिहार करना होगा उसे यह समझना होगा कि धन, स्त्री, स्वजन आदि त्राण नहीं हैं, शरण नहीं हैं। कृत कर्मों का फल स्वयं को ही भोगना पड़ता है कोई किसी का सहयोग नहीं करता, हिस्सा नहीं बाँटता। व्यक्ति को चाहिए कि वह परिग्रही दृष्टिकोण को छोड़ अपरिग्रह की ओर प्रस्थान करें और कर्मों की श्रृंखला को तोड़ बंधन से मुक्ति की ओर अग्रसर हो।
कर्म बंधन के परोक्ष हेतु हैं-राग और द्वेष। प्रत्यक्ष हेतु हैं-परिग्रह और हिंसा। कारण को मिटाए बिना कार्य को नहीं मिटाया जा सकता। बंधन के कारणों को मिटाए बिना बंधन को नहीं तोड़ा जा सकता। परिग्रह की मूर्छा को तोड़ना ही वह सत्य है जिसे जान लेने पर बंधन को तोड़ा जा सकता है। परिग्रही दृष्टिकोण यदि बदल जाए तो आज विश्व की अनेक समस्याओं का समाधान प्राप्त किया जा सकता है।
कहा भी जाता है- “अपरिग्रह का रक्षाकवच विश्वशांति का रक्षाकवच
संदर्भः
1. प्रश्नव्याकरणसूत्र, 108 2. दशवैकालिकसूत्र 6.8 अहिंसा निउणं दिट्ठा, सव्वभूएसु संजमो।
जैन सिद्धांत दीपिका, 6.7 प्राणानामनतिपातः सर्वभूतेषु संयमः अप्रमादो वा अहिंसा। स्थानांगसूत्र, 2.109 चरित्तंधम्मे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा अगारचरितधम्मे चेव अणगारचरितधम्मे चेव। उपासकदशासूत्र, 1.11 तमेव धम्म विहं आइक्खइ, तं जहा अगार
धम्म अणगारं धम्म च। 4. दशवैकालिकसूत्र, 6.8 तत्थिमं पढमं ठाणं, महावीरेण देसियं।
अहिंसा निउणं दिट्ठा सव्वभूएसु संजमो।
हरिभद्रीय अष्टक, 6.5 अहिंसा शस्यसंरक्षणेवृत्ति कल्पत्वात् सत्यादिव्रतानां। 6. योगशास्त्र, 2 अहिंसा पयसः पालि भूतान्यव्रतानि यत्। 7. सूत्रकृतांगसूत्र, 1.1.5 वित्तं सोयरिया चेव, सव्वमेयं ण ताणइ।
संधाति जीविते चेव, कम्म्णा उ तिउट्टइ।। 8. दशवैकालिकसूत्र, 6.20 न सो परिग्गहो वुत्तो नायपुत्तेण ताइणा। मुच्छा परिग्गहो वुत्तो....
सूत्रकृतांगसूत्र, 1.1.3-4 सयं तिवातए पाणे अदुवा अण्णेहिं घायए। हणतं वाणुजाणइ वेरं वड्ढ अप्पणो॥ जस्सि कुले समुप्पण्णे जेहिं वा संवसे णरे। ममाती लुप्पती बाले अण्णमण्णेहिं मुच्छिए।
-गांवगुडा, राजसमन्द
(राजस्थान)