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शोध सार जैन ध्यान-योग का समीक्षात्मक अध्ययन
(ज्ञानार्णव के परिप्रेक्ष्य में)
(श्री लाल बहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली द्वारा मार्च 2010 में विद्यावारिधि उपाधि हेतु स्वीकृत शोध-प्रबन्ध)
-डॉ. मुकेश कुमार जैन भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही आध्यात्मिक विकास की धारा सतत प्रवाहित हो रही है। इस कारण ही भारत को विश्व का आध्यात्मिक गुरु कहा जाता है। भारत में विभिन्न संस्कृतियों, परंपराओं एवं आचार विचारों का अद्भुत समन्वय है। मतवाद या आचार-विचार भिन्न-भिन्न होते हुए भी अपनी विशिष्टताओं के कारण सभी अपना अलग-अलग अस्तित्व रखते हैं। भिन्न-भिन्न अस्तित्व के बावजूद भी सभी परंपराओं में अनेक स्थानों पर एकरूपता दृष्टिगोचर होती है। कुछ तथ्य अनेक स्थानों पर एक दूसरे के पूरक रूप में भी दिखाई देते हैं। भारतीय ध्यान-योग परंपरा भी इस दृष्टिकोण का अपवाद नहीं है।
भारतवर्ष में प्राचीनकाल से ही आध्यात्मिक विकास हेतु ध्यान-योग साधना की परंपरा अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित हो रही है। यद्यपि देश,काल और परिस्थितियों के अनुसार साधना की प्रक्रिया में परिवर्तन, परिवर्द्धन एवं संशोधन होते रहे हैं। परन्तु ध्यान-योग की परंपरा में मूलभूत परिवर्तन नहीं हुआ है। जैन ध्यान-योग परंपरा भी इसका अपवाद नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द को आदि लेकर जैन ध्यान योग परंपरा को अनेक आचार्यों ने विशिष्ट स्वरूप प्रदान किया है। इस कारण ही जैन परम्परा में ध्यान-योग विषयक साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। आचार्य शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव को भी इस परंपरा में विशिष्ट स्थान प्राप्त है। इस ग्रंथ में जैन ध्यान योग का विस्तृत विवेचन किया गया है। पूर्वकृत अनेक शोधों के अध्ययन में जैन ध्यान-योग को एक रूप ही स्वीकार किया गया है लेकिन मूलग्रंथों के अध्ययन से जैन परंपरा में ध्यान और योग भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं। इस कारण ही इस शोध कार्य का उपस्थापन हुआ। संस्कृत भाषा में भी जैन ध्यान-योग विषयक कार्य अपेक्षित है। अत: जैन ध्यान योग परंपरा के अतिविशिष्ट ग्रंथ ज्ञानार्णव के परिप्रेक्ष्य में ध्यान-योग के स्वरूप एवं ज्ञानार्णव का जैन-जैनेतर ग्रंथों के साथ तुलना प्रस्तुत शोध का केन्द्र बिंदु है।
शोध सात अध्यायों में विभक्त है