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अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011
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दीवोदहिणिव्वु, दुगतिगचदुणाणपंचचदुरजमे,११ इत्यादि समस्त पद दृष्टिगोचर होते
- इस आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि प्राकृत भाषा जिस सरलता के कारण लोकसामान्य की भाषा मानी जाती थी, उस भाषा में जैसे ही ग्रंथकारों ने प्राकृत साहित्य का प्रणयन प्रारंभ किया वैसे ही उस सरलता के स्थान पर समस्त पदों का प्रयोग होने लगा। इस प्रवृत्ति का एक मात्र सशक्त संभावित कारक प्राकृत भक्ति साहित्य पर संस्कृत भाषा का प्रभाव ही है।
२.कारक- अगर हम भाषा शास्त्रीय दृष्टि से प्राकृत और संस्कृत भाषा का विश्लेषण करें तो यह तथ्य विदित होता है कि ये दोनों ही भाषायें संश्लेषणात्मक भाषायें हैं अर्थात् इन दोनों ही भाषाओं में कारक चिह्न (विभक्ति) मूल शब्दों के साथ संयुक्त होते हैं। प्राकृत भक्ति साहित्य में भी यह तथ्य अनेकशः परिलक्षित होता है यथा-तीर्थकर भक्ति की द्वितीय गाथा में द्वितीया विभक्ति का होना, इसी गाथा में केवलिनः' इस पद में षष्ठी विभक्ति होना अतः हम कह सकते हैं कि प्राकृत और संस्कृत भाषा परस्पर सम्बद्ध हैं और संस्कृत भाषा का महान् प्रभाव प्राकृत भक्ति पर परिलक्षित होता है।
३. कर्ता क्रिया अन्विति- संस्कृत व्याकरण में कर्त्ता क्रिया अन्विति का महान् महत्त्व है अर्थात् कर्ता के अनुसार ही क्रिया का रूप प्रयुक्त किया जाता है। अगर इस व्यवस्था में कोई क्रम भङ्ग होता है तो उस प्रयोग को विज्ञजन असंस्कृत प्रयोग कहते हैं। प्राकृत भाषा में भी यह नियम समानरूप से दृष्टिगोचर होता है यथा सिद्ध भक्ति की षष्ठ गाथा में 'ते'12 इस कर्तृ पद के लिए बहुवचनान्त 'सिज्झन्ति" क्रिया का प्रयोग। पंचमहागुरु भक्ति में 'ते जिणा' इस कर्तृ पद के लिए लोट् लकार बहु वचनान्त 'दिन्तु" क्रिया का प्रयोग।
कर्त्ता क्रिया अन्विति का यह प्रयोग प्राकृत भाषा में कर्म वाच्य में भी दृष्टिगोचर होता है जैसे चारित्र भक्ति की दशम गाथा में 'मए16 पद तृतीयान्त कर्तृ पद है, 'सुहं'17 प्रथमान्त कर्म पद है अत: नियमानुसार 'सुहं' पद के अनुरूप 'लब्भदे' क्रिया का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है इस प्रकार कर्तृ क्रिया अन्विति का यह नियम प्राकृत भक्ति साहित्य में बहुधा होता है।
४. छन्द- 'यदक्षरपरिमाणं तत् छन्दः' इस परिभाषा के अनुसार जिन रचनाओं में अक्षरों का परिमाण निश्चित रहता है उन रचनाओं को काव्यमयी या पद्यमयी रचनाएँ कहते हैं। किसी भी भाषा के भक्ति साहित्य पर दृष्टिपात करने से यह ज्ञात होता है कि संपूर्ण भक्ति साहित्य इन छन्दोबद्ध रचनाओं में ही प्राप्त होता है इसका कारण छन्दों की ज्ञेयता, लयबद्धता, स्मरण, सुकर्ता आदि हैं। प्राकृत भक्ति साहित्य भी इसका अपवाद नहीं है। प्राकृत भक्ति साहित्य की मुख्य रचनायें गाथा छन्द में प्राप्त होती हैं उपजाति आदि छन्दों में भी प्राप्त होती हैं इसका एक सशक्त कारण इन छंदों का संस्कृत भाषा में प्रचुरता से प्रयोग हो सकता है। अतः छन्दःशास्त्रीय दृष्टि से भी प्राकृत भक्ति साहित्य पर संस्कृत भाषा का प्रभाव परिलक्षित होता है।