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प्राकृत भक्ति साहित्य पर संस्कृत का प्रभावः एक समीक्षा
-डॉ. आनन्द कुमार जैन
भाषा विचार विनिमय का सर्वश्रेष्ठ साधन है। भाषा का प्रारंभ कब से हुआ, कैसे हुआ इस विषय में कोई सुनिश्चित मत प्रस्तुत करना भाषाशास्त्रियों के लिए भी दुष्कर है, अस्तु। भारत के सुदूर अतीत पर दृष्टिपात करने से यह ज्ञात होता है कि वास्तव में प्राकृत, पालि और संस्कृत भाषाओं की यह त्रिवेणी है। जिससे प्राचीन भारतीय साहित्य रूपी संगम आविर्भूत हुआ।
यदि हम प्राचीन भारतीय साहित्य पर दृष्टिपात करें तो हम देखते हैं कि उसमें भक्ति-साहित्य का प्राचुर्य है। इसका एक मात्र कारण यह है कि भारतीय संस्कृति में प्रारंभ से ही मोक्ष-पुरुषार्थ साध्य और धर्म पुरुषार्थ को उसका साधन मानते रहे हैं। उस परम पुरुषार्थ मोक्ष की प्राप्ति हेतु ही भक्त कवियों ने आराध्य के प्रति अपने मनोभावों को स्तुतियों, भक्तियों आदि में निबद्ध किया है।
वस्तुतः प्राकृत एवं संस्कृत का प्रयोग प्राचीन काल में समान रूप से जनसामान्य द्वारा किया जाता था, अन्तर केवल यह है कि प्राकृत का प्रयोग सामान्य लोगों द्वारा तथा संस्कृत का प्रयोग शिष्ट, कुलीन व शिक्षित लोगों द्वारा किया जाता था। इस तथ्य की पुष्टि प्राचीन संस्कृत नाटकों के संवादों से भी होती है। अतः प्राकृत और संस्कृत भाषाओं का परस्पर एक-दूसरे से प्रभावित होना स्वाभाविक है और दोनों भाषाओं के ये प्रभाव दृष्टिगोचर भी होते हैं।
प्राकृत भक्ति साहित्य भी इसका अपवाद नहीं है। जनसामान्य के सौविध्य के लिए रचित प्राकृत स्तुतियों और भक्तियों पर भी संस्कृत भाषा का प्रभाव परिलक्षित होता है, अतः प्रकृत लेख में भी संस्कृत भाषा के प्राकृत भक्ति साहित्य पर प्रभाव विषय पर प्रकाश डाला जा रहा है।
हम प्राकृत भक्ति साहित्य पर संस्कृत भाषा के प्रभाव को अधोनिर्दिष्ट भाषिक तत्त्वों के आधार पर विश्लेषित कर सकते हैं
१. समास- "समसनं समासः" अर्थात् शब्दों का संक्षिप्तिकरण ही समास है। समास द्वारा कवि का अभिप्राय अल्प शब्दकलेवर में विपुल अर्थसंपत्ति को भरना रहता है।
__ आचार्य कुन्दकुन्दप्रणीत सिद्धभक्ति में समास का प्रयोग बहुलता से दृष्टिगोचर होता है। यथा प्रथम गाथा में 'अट्ठविहकम्ममुक्के'१, 'अट्ठगुणडूढे '२, अट्ठमपुढविणिविढे ३, णिट्ठियकज्जे इन चारों ही पदों में बहुब्रीहि समास है और ये चारों ही पद “सिद्धे"५ इस पद के विशेषण हैं। इसी प्रकार अन्य गाथाओं में भी तित्थयरेदरसिद्धे, जलथलआयासणिव्वुदे अंतयडेदरसिद्धे, उवसग्गाणिरुमसग्गो,