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अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011
करते हैं। अतः इस दृष्टि से वे अनेकान्तवादी ही कहे जायेंगे। मेरी स्पष्ट मान्यता है कि विचारों में एकान्त हो सकता है जीवन में नहीं। अनेकान्त की परिभाषा
जैन शास्त्रों में अनेकान्त की परिभाषा है
‘एक ही वस्तु में वस्तुपने को निपजाने वाली परस्पर दो विरुद्ध शक्तियों का एक साथ प्रकाशित होना अनेकान्त है।' तात्पर्य यह है कि बिना विरोध के अस्तित्व नहीं है और विरोध की स्वीकृति है अनेकान्त। अनेकान्त एक ऐसी पद्धति है जिसमें हमें सिर्फ शास्त्रों के ही नहीं वरन् जीवन के भी अर्थ समझ में आते हैं। दुनिया में चाहे कोई भी दार्शनिक रहा हो, चाहे कोई भी शास्त्र उनमें कहीं न कहीं अनेकान्त की आभा विराजमान रही है क्योंकि व्यक्ति चाहे तो अन्तर्जगत् में रहने वाला दार्शनिक हो या बाह्य जगत् में रहने वाला भौतिक या पदार्थवादी; वास्तव में यदि वह मनुष्य है और संवेदनशील है तो 'अनेकान्त' उसके अनुभव का विषय जरूर बनता है। फिर भले ही वहाँ 'अनेकान्त' संज्ञा का प्रयोग न हुआ हो किन्तु एक ही स्थल पर अनन्त धर्मात्मकता और विरोध को प्रायः सभी ने स्वीकार किया है। पाश्चात्य विचारक और अनेकान्त ।
प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डॉ. हैयनाक एलिस (1819-1939) ने अपनी महत्त्वपूर्ण पुस्तक 'आई विलीव' में विरोध को स्वीकार किया है। वे लिखते हैं
"मैंने यह महसूस किया है कि अपनी प्रकृति के दोनों विरोधी तत्त्वों में जिस समन्वय को उपलब्ध करने में मैं सफल हुआ था वह वस्तुतः मेरे स्वभाव में गहरी जड़ जमाकर बैठी हुयी विशेषता के उपयोग के ही कारण था।"
इसी प्रकार पाश्चात्य दर्शन के कई दार्शनिक ईसा से कई सौ वर्ष पूर्व इसी अनुभव से गुजरे। उन्होंने विरोध को स्वीकार किया। सुप्रसिद्ध पाश्चात्य दार्शनिक हेरेक्लाइटस (Heraclitus 600 B.C.) ने संघर्ष, विरोध, निषेध और अभाव को बहुत महत्त्व दिया। वे मानते थे कि विरोध और निषेध का अर्थ गति या परिवर्तन है। अत: जीवन के लिए विरोध आवश्यक है। विरोध का अभाव मृत्यु है। विरोध या निषेध के बिना गति या परिवर्तन (विकास) संभव नहीं है। हेरेक्लाइटस विरोध के माध्यम से ही अस्तित्व की स्वीकृति मानते हैं। वे आगे यह भी कहते हैं कि विरोध का अर्थ आत्यन्तिक विरोध नहीं है। आत्यन्तिक विरोध असंभव है; यह हमारी कल्पना है, वस्तु सत्य नहीं। विरोध तो साधन मात्र है, साध्य है समन्वय।' (पाश्चात्य दर्शन, पृ.5-6)
जैनदर्शन भी एक ही वस्तु में परस्पर विरोधी धर्मों की स्वीकृति प्रदान करता है, यही -'अनेकान्तवाद' है। यहां एक बात और ध्यातव्य है कि यहां भी परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले धर्मों का सहावस्थान एक वस्तु माना है। नित्य-अनित्य धर्म वास्तव में विरोधी प्रतीत होते हैं, विरोधी हैं नहीं यदि वास्तव में विरोधी होते तो क्या ये एक स्थान पर रहते?