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अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011
उपर्युक्त ग्रंथों के साथ ज्ञानार्णव का तुलनात्मक समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। जैन साहित्य की प्रचुरता और अधिकांश ग्रंथों में संक्षिप्त या विस्तृत रूप से ध्यान योग का वर्णन होने के कारण कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रंथों के साथ ही ज्ञानार्णव की तुलना की गयी है। इसके माध्यम से पूर्वाचार्यों का ज्ञानार्णव पर प्रभाव एवं परवर्ती आचार्यों पर ज्ञानार्णव का प्रभाव सुनिश्चित होता है। ज्ञानार्णव के काल निर्धारण के लिए भी यह महत्त्वपूर्ण है। षष्ठ अध्याय
यहाँ वैदिक ध्यान-योग परंपरा के पातञ्जल योगसूत्र और बौद्धध्यान-योग परंपरा का ज्ञानार्णव के साथ समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है।
___ पातञ्जल योगसूत्र महर्षि पतञ्जलि के द्वारा रचित योग का महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है इसमें अष्टांग योग के द्वारा योग को व्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया गया है। ज्ञानार्णव और योगसूत्र में वर्णित विषय क्रम समान प्रतीत होता है लेकिन दोनों के मूलभूत सिद्धांत भिन्न-2 हैं।
बौद्ध ध्यान-योग परम्परा में ध्यान-योग की विस्तृत चर्चा की गयी है लेकिन ध्यान-योग विषयक स्वतंत्र ग्रंथ प्राचीन धारा में उपलब्ध नहीं होता। अत: बौद्ध ध्यान-योग परंपरा से ही ज्ञानार्णव की तुलनात्मक दृष्टि से समीक्षा की गयी है। दोनों में समानता के अनेक बिंदु दृष्टिगोचर होते हैं लेकिन मूल मान्यता में भिन्नता होने के कारण ध्यान-योग के भिन्न-2 आधार दृष्टिगोचर होते हैं।
सप्तम अध्याय- छह अध्यायों में ध्यान-योग का विवेचन करने के उपरांत इस अध्याय में उपसंहार लिखा गया है। इसमें भारतीय योग परंपरा की वैदिक, बौद्ध और जैन धारा से संबद्ध मौलिक विशेषताओं का निदर्शन हुआ है। यहाँ अष्टांग योग का प्रणेता महर्षि पतञ्जलि को न स्वीकारते हुए आचार्य कुन्दकुन्दस्वामी को स्वीकार किया गया है। ज्ञानार्णव के परिप्रेक्ष्य में जैन ध्यान योग का मूल्यांकन किया गया है।
परिशिष्ट- शोध के अंत में परिशिष्ट के माध्यम से कुछ ऐसे विषयों का उल्लेख किया गया है जिनका विवेचन ज्ञानार्णव में नहीं किया गया। लेकिन जैन ध्यान-योग हेतु अपेक्षित है। संदर्भ:
1. तत्त्वार्थसूत्र, 9/3 2. ज्ञानार्णव, 1/19 3. तत्त्वार्थराजवार्तिक, 9/26/13 4. ताश्च संवेग वैराग्यं प्रशम सिद्धये।- ज्ञानार्णव, 2/6
ज्ञानार्णव, 2/7 6. रत्नत्रयमनासाद्य यः साक्षाड्यातुमिच्छति।
रणपुष्पैः कुरुते मूढः स वन्ध्यासुत शेखरम्।।- ज्ञानार्णव, 6/4 7. ज्ञानार्णव, 8/6 8. ज्ञानार्णव, 18/3