________________
अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011
3 चुल्ली - चूल्हे में आग जलाना । 4 उदकुम्भ - पानी के घट भरना । 5 प्रमार्जनी - बुहारी (झाडू) से भूमि को साफ करना।
ये पाँच हिंसा के कार्य गृहस्थ के होते ही हैं। खेती व्यापारादि कार्य आरम्भ कहलाते हैं। जिनके आरम्भ और सूना नष्ट हो चुके हैं ऐसे सम्यग्दर्शनादि गुणों से सहित मुनियों का आहारादि दान के द्वारा जो गौरव अथवा आदर किया जाता है वह दान कहलाता
वैयावृत्य के भेद- आचार्य समन्तभद्रस्वामी ने दान को वैयावृत्य के अंग के रूप में स्वीकृत किया है। दान को सभी आचार्यों ने चार प्रकार का माना है और आचार्य समन्तभद्रस्वामी ने भी चार प्रकार का दान स्वीकार किया है।
आहारौषधियोरप्युपकरणावासयोश्च दानेन ।
वैयावृत्यं ब्रुवते चतुरात्मत्वेन चतुरस्राः॥१२ अर्थात् विद्वज्जन आहार, औषधि, उपकरण और आवास के भी दान से वैयावृत्य को चार प्रकार का कहते हैं। भोजन-पानादि को आहार कहते हैं, बीमारी को दूर करने वाले पदार्थ को औषधि कहते हैं। ज्ञानोपकरणादि को उपकरण और वसतिका आदि को आवास कहते हैं। इन चार दानों में कौन-कौन प्रसिद्ध हुआ इसको भी आचार्य समन्तभद्र स्वामी बताते हैं कि आहार दान में राजा श्रीषेण, औषधिदान में वृषभसेना, उपकरण दान में कौण्डेश ग्वाला और वसतिका दान में सूकर प्रसिद्ध हुए हैं।।। __आचार्य वट्टकेर स्वामी ने लिखा है कि गुणाधिक में, उपाध्यायों में, तपस्वियों में, शिष्यों में, दुर्बलों में, साधुओं में, गण में, साधुओं के कुल में, चतुर्विध संघ में, मनोज्ञ में उपद्रव आने पर वैयावृत्य करना श्रावक का परम कर्तव्य है। आचार्य उमास्वामी ने भी पात्र की अपेक्षा वैयावृत्य के दस भेद किये हैं- आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य (शिष्य), ग्लान (रोगी), गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ।'
दाता की पात्रता- दान सात गुणों से सहित दाता के द्वारा दिया जाता है। आचार्यों ने सात गुणों का वर्णन किया तो है परन्तु अलग-अलग आचार्यों ने अलग-अलग सात गुणों का कथन किया है।
रत्नकरण्डक श्रावकाचार के टीकाकार आचार्य प्रभाचन्द्रस्वामी के अनुसार दाता के सात गुण इस प्रकार हैं -श्रद्धा, सन्तोष, भक्ति, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा, और सत्य। ये सात गुण जिसके होते हैं वह दाता प्रशंसनीय है।
आचार्य अमृतचन्द्रस्वामी ने भी सात गुणों का वर्णन इस प्रकार किया है - ऐहिक फल की इच्छा न करना, शान्ति, निष्कपटता, अनसूया- अर्थात् अन्य दाताओं से ईर्ष्या न करना, अविषादित्व, मुदित्व और निरहंकारित्व।”
दाता की शुद्धता का विचार तीन प्रकार से किया जाता है - 1 कौलिकशुद्धि - जिसकी वंश परम्परा शुद्ध हो उसे कुलशुद्ध कहते हैं। 2 आचारिकशुद्धि- जिसका आचरण शुद्ध हो, उसे आचार शुद्ध कहते हैं।