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मानव धर्म की पृष्ठभूमिः एक अनुशीलन
-निर्मला जैन
'योगशास्त्र' में योग के विविध अंगों का वर्णन है। जिनपर चलकर कोई भी साधक लघु से महान्, क्षुद्र से विराट और जीवन की अनन्त दिव्यता का वरण कर सकता है। स्त्री या पुरुष, जैन या अजैन, मानव मात्र उसका आचरण कर सकता है। ऐसे सहज, सरल एवं व्यापक मानव धर्म का चिंतन मनन कर जीवन में उतारना ही मानव धर्म है। धर्म का अधिकारी:
अधिकारी से अभिप्राय है पात्रता। किसी भी वस्तु को प्राप्त करने से पूर्व उसके योग्य बनना। वस्तु को धारण करने की योग्यता नहीं होने पर हठात् उसको धारण करने से वस्तु एवं व्यक्ति दोनों का अनिष्ट होता है। कच्चे घड़े में यदि अमृत भर दिया जाये तो घड़ा और अमृत दोनों नष्ट हो जाते हैं- 'आमकुम्भा एव वारिगर्भाः।" सिंहनी का दूध सोने के पात्र में ही ठहरता है। योग्य में योग्य का आधान ही श्रेष्ठ होता है- “योग्येन हि योग्य संगमः"१
जिस प्रकार कुशल चित्रकार गारे की दीवार पर चित्र नहीं बना सकता उसके लिए उसे अच्छी, साफ और चिकनी दीवार चाहिए। इसी प्रकार किसान अच्छी से अच्छी किस्म के बीज को खेत में डालने से पूर्व भूमि को तैयार करता है। वस्तु को धारण करने के लिए तदनुकूल योग्यता आवश्यक है। भगवान् महावीर से जब पूछा गया कि धर्म का अधिकारी कौन है? उन्होंने बताया "धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ"- धर्म शुद्ध हृदय में ठहरता है। पवित्र हृदय ही धर्म का आधार है।' हृदय की पवित्रता
जीवन में मलिनता, अशुद्धि एवं अपवित्रता होने से धर्म नहीं होता। मन की अपवित्रता धर्म की तेजस्विता को ढंक देती है, जिससे धर्म प्रकट नहीं हो पाता। जीवन रूपी भूमि को धर्म के योग्य सद्गुण बनाते हैं। सद्गुणों के आचरण से मन और जीवन पवित्र एवं शुद्ध होता है, गुण जीवन-भूमि को तैयार करते हैं। अणुव्रत और महाव्रत रूपी धर्म की पृष्ठभूमि सद्गुणों के आधार पर तैयार हो सकती है। कुशल किसान की तरह जीवन की भूमि को धर्म की खेती योग्य बनाने से धर्म रूपी बीज स्वतः ही पल्लवित व पुष्पित होने लगते
परिवर्तन की दशा
चैतन्य सत्ता “आत्मा" है। अशुद्ध दशा में संसारी और शुद्ध अवस्था में परमात्मा है। आत्मा की विशुद्ध अवस्था निरपेक्ष है जिसका वर्णन तर्क, युक्तियों, शब्दादि द्वारा नहीं