________________
अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 सद्गुणों के विकास की अवस्था__केवल ईंट, पत्थर व चूने के ढेर घर नहीं हैं। जिसमें गृहिणी, पुत्रादि परिवार सहित रहते हैं वही घर है। गृहस्थ होना एक स्थिति है, सद्गृहस्थ बनना एक गुण है। गृहस्थ जीवन में सद्गुणों के विकास से उदात्त भावनाएँ और उच्च संकल्प होते हैं। धर्म के आचरण से धर्म का अधिकारी (सच्चा श्रावक) बनता है। आत्मा का स्वभाव धर्म है। 'वत्थुसहावो ध म्मो' अर्थात् वस्तु का स्वभाव धर्म है। जल का स्वभाव शीतलता, अग्नि का स्वभाव उष्णता, आत्मा का स्वभाव ज्ञानानन्द है। व्यवहार धर्म
“सव्वेषु मैत्री, गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्। माध्यस्थ्यभावं च विपरीतवृत्ती,
सदा ममात्मा विदधातु देव।।"९ मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ भावना ये चार धर्म रूप प्रासाद के स्तम्भ हैं।
• मैत्री:- इस भावना में आत्मा संसार के सभी जीवों के प्रति मित्रता का संकल्प करता है। मैत्रीभाव अभय देता है। “मेत्ति मे सव्व भूएसु। मेत्तिं भूएसु कप्पए।" वेद एवं उपनिषद् में भी- मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।" अर्थात् सब प्राणियों को मित्रता की दृष्टि से देखें। मैत्री भाव जगत् में मेरा सब जीवों से नित्य रहे।" प्राणिमात्र के साथ मित्रता के भाव से जीवन में आनन्द, अभय और प्रसन्नता प्राप्त होती है।
• प्रमोदः- प्रसन्नता। अच्छाई, सद्गुणों को देखकर प्रसन्न होना हृदय में आनन्द होना प्रमोद भावना है। जो व्यक्ति सद्गुणों की प्रशंसा करता है उसके जीवन में भी सद्गुण आते हैं और वह प्रत्येक परिस्थिति में प्रसन्न रहता है।
.करुणा:- करुणा अर्थात् दया, अनुकंपा। दया, करुणा, अहिंसा में हमारे प्रतिदिन की सभी गतिविधियाँ आ जाती हैं। हमारी किसी भी प्रवृत्ति से किसी प्राणी को कष्ट, पीड़ा न हो, व्यवहार में परिवार, समाज एवं राष्ट्रीय जीवन में हमारे द्वारा ऐसी कोई प्रवृत्ति नहीं हो जिससे शांति भंग होती हो।
“आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।।१३ जो आपके मन के प्रतिकूल आचरण है वैसा दूसरों के लिए न करें।
जं इच्छसि अप्पणत्तो जं च न इच्छसि अप्पणत्तो।
तं इच्छ परस्स वि एत्तियंग जिणसासणय।।१४ जिस आत्मा में करुणा की भावना जागृत होती है उसमें शुभ भावनाएँ होती हैं।
• माध्यस्थः- मध्यस्थ-दो किनारों के मध्य ठहरना। कोई व्यक्ति हमारे सामने धर्मगुरु या प्रिय व्यक्ति की निंदा करता है तो मध्यस्थ वृत्ति से मन में शांति होती है कि "यह अज्ञानी है, क्रोध आदि के वश में होकर निंदा कर रहा है, इससे इसकी आत्मा का पतन हो रहा है। यह व्यक्ति क्रोध का नहीं वरन् दया का पात्र है। इस प्रकार की मध्यस्थ