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अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011
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3 शारीरिकशुद्धि- जिसने स्नानादिक कर शुद्ध वस्त्र धारण किए हैं, अंग-भंग नहीं है, शरीर में कोई राध- रुधिर को बहाने वाली बीमारी नहीं हो, वह शारीरिकशुद्ध है। वैयावृत्य का फल - वैयावृत्य करने वाले गृहस्थ को किन-किन फलों की प्राप्ति होती है, उसका वर्णन करते हुए आचार्य समन्तभद्रस्वामी लिखते हैं कि - गृहकर्मणापि निचितं कर्म विमार्ष्टिखलु गृहविमुक्तानाम् । अतिथीनां प्रतिपूजा रुधिरमलं धावते वारि॥
अर्थात् निश्चय से जिस प्रकार जल खून को धो देता है उसी प्रकार गृहरहित निर्ग्रन्थ अर्थात् परिग्रह रहित साधु को ( ना कि गृह आदि से रहित साधु को ) दिया गया दान गृह सम्बन्धी कार्यों से उपार्जित अथवा सुदृढ़ भी कर्म को नष्ट कर देता है क्योंकि श्रावक को प्रतिदिन की क्रियाओं में नियम से बहुत कर्मबन्ध होता है इसलिए उन कर्मों का भार इन वैयावृत्य दानादि क्रियाओं के करने से कम हो जाता है और परम्परा से मोक्ष पद की प्राप्ति कराने में सहायक होता है। आगे आचार्यसमन्तभद्रस्वामी लिखते हैं कि तप के भण्डारस्वरूप मुनियों को नमस्कार करने से उच्च गोत्र, आहार आदि दान देने से भोग, प्रतिग्रहण आदि करने से सम्मान, भक्ति करने से सुन्दर रूप और स्तुति करने से सुयश प्राप्त होता है।"
वैयावृत्य का माहात्म्य बताते हुए आचार्य कहते हैं कि उचित समय में योग्य पात्र के लिए दिया गया थोड़ा भी दान उत्तम पृथ्वी में पड़े हुए वटवृक्ष के बीज के समान प्राणियों के लिए माहात्म्य और वैभव से युक्त पक्ष में छाया की प्रचुरता से सहित बहुत भारी अभिलषित फल को देता है।" यहाँ पर आचार्य समन्तभद्रस्वामी का तात्पर्य है कि जो मुनि दान/ वैयावृत्य के योग्य है और उन्हें जिस समय जिस वस्तु की आवश्यकता है उसी समय थोड़ा सा भी दिया गया दान अतिशय पुण्य का कारण बनता है और मोक्षप्राप्ति में भी सहायक होता है। यदि कृपात्रों या अपात्रों को प्रचुर भी दान दे दिया तो भी कुभोगभूमि का ही कारण होता है दान देने में मात्रा (परिमाण) नहीं, भावना और आवश्यकतानुसार पदार्थ का माहात्म्य होता है। सम्यग्दृष्टि मनुष्य पात्र दान के फलस्वरूप स्वर्ग में उत्पन्न होता है और मिथ्यादृष्टि मनुष्य भोगभूमि में उत्पन्न होता है। कुपात्रदान का फल कुभोगभूमि और अपात्रदान का फल नरक एवं निगोद आदि है। अन्य आचार्यों ने भी दान की महिमा का बहुत गुणगान किया है। दान की महिमा का बखान करते हुए आचार्य लिखते हैं कि जो भी तीर्थंकर को प्रथम आहार दान देता है वह नियम से उसी भव से मोक्ष जाता है । प्रथमानुयोग का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि तीर्थंकर, ऋद्धिधारी मुनि आदि को दान देने पर श्रावकों के घर पर पञ्चाश्चर्य प्रकट होते हैं। ये सब दान की ही महिमा है। राजा श्रेयांस आदिनाथ स्वामी को इस युग का प्रथम आहार दान देने के कारण दान तीर्थंकर कहलाते हैं। पूजाओं में भी पं द्यानतराय जी ने दान की महिमा का उल्लेख किया है
उत्तम त्याग करें जो कोई भोगभूमि सुर शिवसुख होई
- दसलक्षण पूजा जयमाला