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अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 तो आचार्य कहते हैं कि समर्थ होते हुए तथा अपने बल को छिपाते हुए भी जिनोपदिष्ट वैयावृत्य जो नहीं करता है वह धर्म-भ्रष्ट है। जिनाज्ञा का भंग, शास्त्र कथित धर्म का नाश, साधुवर्ग का एवं आगम का त्याग, ऐसे महादोष वैयावृत्य न करने से उत्पन्न होते हैं।
आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी विरचित प्रवचनसार की टीका में आचार्य जयसेन स्वामी लिखते हैं कि- रोगी, बाल, गुरु तथा वृद्ध श्रमणों की वैयावृत्य के निमित्त शुभोपयोग युक्त लौकिक जनों के साथ की गई बातचीत निन्दित नहीं है, यह प्रशस्तभूत चर्या रागसहित होने के कारण श्रमणों को गौण होती है और गृहस्थों को क्रमशः परमनिर्वाण सौख्य का कारण होने से मुख्य है। वैयावृत्य की तप में भी और सोलहकारण भावनाओं में भी गणना है। जो वैयावृत्य तीर्थकर प्रकृति का बन्ध कराती है, ऐसी भावना को आवश्यक रूप से धारण करना ही चाहिए।
इस प्रकार आचार्य समन्तभद्रस्वामी ने वैयावृत्य को शिक्षाव्रत के साथ-साथ दान में भी ग्रहण किया है। दानादि करने एवं शिक्षाव्रतों को पालन करना हम सबका धर्म है। अतः हम कह सकते हैं कि वैयावृत्य- दान भी, धर्म भी। सन्दर्भ सूची1. भावपाहुड़ - आचार्य कुन्दकुन्दस्वामी 2. र. क. श्रा. श्लोक-111 3. वही श्लोक-11 4. कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा 457 5. स. सि. 6/24,9/20 6. राजवार्तिक 9/24/15 -16 7. धवला 823, 41/88/8, 13/5, 4, 26/63 8. चारित्रसार 150/3 9. र. क. श्रा. श्लोक-113 10. वसुनन्दिश्रावकाचार गाथा 225 11. मूलाचार गाथा 926, अनगार धर्मामृत 4/125 12. र. क. श्रा. श्लोक-11 13. वही श्लोक-118 14. मूलाचार गाथा 307 15. तत्त्वार्थसूत्र 9/24 16. र. क. श्रा. श्लोक-113 टीका 17. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय 18. र. क. श्रा. श्लोक-114 19. वही श्लोक-115 20. वही श्लोक-116 21. वही श्लोक-119 22. वही श्लोक-121 23. तत्त्वार्थसूत्र 7/36
-शोध अध्येता जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय
लाडनूं (राजस्थान)