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अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 उपासकाध्ययनांग-इस अंग में श्रावक धर्म का विशेषरूप से विवेचन किया गया है। अन्त:कृद्दशांग- संसार का अन्त जिन्होंने कर दिया है, वे अन्तकृत हैं, ऋषभादि चौबीस तीर्थंकरों के समय में दश-दश मुनि घोरोपसर्ग सहन करके अन्त:कृत केवली हुए हैं, उन दस-दस मुनियों का वर्णन जिसमें है, उसको अन्तकृद्दशांग कहते हैं अथवा अन्त:कृतों की दशा-अन्त:कृद्दशा। उसमें अर्हन्त होने की विधि तथा सिद्ध होने की अन्तिम विधि का वर्णन है। अनुत्तरोपपादिकदशांग- उपपाद जन्म ही है जिसका वह औपादिक है। विजय आदि पाँच अनुत्तरों में पैदा होने वालों को अनुत्तरोपपादिक कहते हैं। उन अनुत्तरोपपादिक की दशा का वर्णन जिसमें किया गया है, इस अंग का नाम अनुत्तरोपपादिकदशांग है। इसमें विजय आदि अनुत्तर विमानों की आयु, विक्रिया, क्षेत्र आदि का वर्णन
(10) प्रश्नव्याकरणांग- इस अंग में युक्ति और नयों के द्वारा अनेक आक्षेप-विक्षेप रूप
प्रश्नों का उत्तर है तथा उसमें सभी लौकिक और वैदिक अर्थों का निर्णय किया
गया है। (11) विपाकसूत्रांग- इस अंग में पुण्य और पाप के फल का विचार है। (12) दृष्टिवादांग- इसमें 363 कुवादियों के मतों का युक्तिपूर्वक खण्डन है।
इस प्रकार संक्षिप्ततः भेद-प्रभेद को जानकर श्रुतज्ञान की दार्शनिकता को समझना आवश्यक होता है।
श्रुतज्ञान की दार्शनिकता के विषय में तो स्पष्ट है कि तत्त्वार्थवार्तिक में जो नय प्रमाण, निक्षेप, सप्तभंगी, स्याद्वाद आदि संबन्धी विवेचन है, वह सब श्रुतज्ञान का ही विषय है इसलिए इन सभी दार्शनिक विषयों की विवेचना श्रुतज्ञान की दार्शनिक मीमांसा ही है। विशेष यह है कि श्रुतज्ञान का लक्षण करते हुए कारण-कार्य व्यवस्था को दर्शाया गया है। मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान की उत्पत्ति होती है। यहाँ मतिज्ञान को कारण कहा है और श्रुतज्ञान को कार्य माना है ऐसा मानने पर प्रश्न होगा कि यदि श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है तो श्रुतज्ञान मत्यात्मक ही होना चाहिए क्योंकि लोक में कारण के समान ही कार्य देखा जाता है? इस प्रश्न का समाधान इस प्रकार होता कि घटोत्पत्ति दण्डादिक से होती है तो भी घट दण्डाद्यात्मक नहीं होता। मतिज्ञान के रहते हुए भी श्रुतज्ञान नहीं होता। श्रुतज्ञान तो श्रुतज्ञानावरण कर्म का प्रकर्ष क्षयोपशम होने पर ही होता है इसलिए मतिज्ञान श्रुतज्ञान की उत्पत्ति में निमित्त मात्र जानना चाहिए। इसी विषय को आचार्य अकलंकदेव ने स्पष्ट करते हुए इस प्रकार कहा है कि यह कोई नियम नहीं है कि कारण के सदृश ही कार्य होना चाहिए क्योंकि इस विषय में सप्तभंगी की योजना करनी चाहिए। घड़े की भांति जैसे पुद्गल द्रव्य की दृष्टि से मिट्टी रूप कारण के समान घड़ा होता है। परपिण्ड और घट पर्यायों की अपेक्षा दोनों विलक्षण हैं, उसी तरह चैतन्य द्रव्य में मति और श्रुत दोनों एक हैं क्योंकि मति भी ज्ञान है और श्रुत भी ज्ञान है किन्तु तत्तत् ज्ञान पर्यायों की दृष्टि से दोनों