________________
अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 आत्मा से आत्मा में अनुभव करने के कारण केवली हैं, उसी प्रकार छद्मस्थ पुरुष भी क्रमशः परिणमित होते हुए कुछ चैतन्य विशेषों से युक्त श्रुतज्ञान के द्वारा अनादि निधन निष्कारण-असाधारण-स्वसंवेद्यमान चैतन्य सामान्य जिसकी महिमा है तथा जो चेतक स्वभाव के द्वारा एकत्व होने से केवल (अकेला) है, ऐसे आत्मा का आत्मा से आत्मा में अनुभव करने के कारण श्रुतकेवली है। उक्त कथन में केवलज्ञानी और श्रुतज्ञानी दोनों को अविशेष दिखलाया गया है। जैसे केवलज्ञान के द्वारा आत्मा का जानपना होता है, वैसा श्रुतज्ञान से भी आत्मा का ज्ञान होता है। आत्मज्ञान के लिए दोनों ज्ञान बराबर हैं। केवलज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण रूप है और श्रुतज्ञान परोक्ष प्रमाण है। श्रुतज्ञानरूप कारण से केवलरूप कार्य की उत्पत्ति होती है, "सम्पूर्ण पदार्थों को जानने वाले केवलज्ञान की उत्पत्ति तो पूर्ववर्ती पूर्णद्वादशांग श्रुतज्ञान रूप कारण से होती हुई मानी गई है। इसीलिए यह समझना चाहिए कि श्रुतज्ञान का माहात्म्य अचिन्त्य है। कहा भी है कि श्रुतज्ञान के लिए ही जीवन की प्राप्ति सार्थक है, इसके बिना शरीर वृद्धि निरर्थक है
श्रुताय येषां न शरीर वृद्धिः, श्रुतं चारित्राय च येषु नैव। तेषां बलित्वं ननु पूर्व कर्म, व्यापारभारो वहनाय मन्ये॥ यश.चम्पू
जिनका जीवन श्रुतज्ञान के लिए नहीं है और श्रुतज्ञान चारित्र के लिए नहीं है, उनका बलवान् होना पूर्व कर्म के व्यापार भार को ढोने के लिए ही है।" ।
श्रुतज्ञान का विनयपूर्वक अध्ययन करने से प्रमाद से विस्मृत भी हो जाने पर भी यह श्रुत आगामी भवों में केवलज्ञान प्राप्ति का कारण होता है। श्रुतज्ञान समस्त रोगों को दूर करने वाली औषधि है। सम्प्रति तो आत्मकल्याण के लिए श्रुतज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई भी ज्ञान नहीं है
अत्यल्पामतिरक्षजा मतिरयं बोधोऽवधिः सावधिः, साश्चर्यः क्वचिदेव योगिनि स च स्वल्पो मनःपर्ययः। दुष्यापं पुनरद्य केवलमिदं ज्योतिः कथा गोचरं, माहात्म्यं निखिलार्थगे तु सुलभे किं वर्णयामः श्रुते॥
इन्द्रियों से होने वाला यह मतिज्ञान अत्यन्त अल्प है। अवधिज्ञान अवधि-सीमा से सहित है, आश्चर्य से युक्त मन:पर्ययज्ञान किसी मुनि विशेष के होता है फिर भी अत्यन्त अल्प है और यह केवलज्ञान रूप ज्योति इस समय अत्यन्त दुर्लभ होने से मात्र कथा का विषय है, परन्तु श्रुतज्ञान समस्त पदार्थों को विषय करता है तथा सुलभ भी है। अतः इसके माहात्म्य का वर्णन क्या करें?
श्रुतज्ञान को मुख्यता देते हुए समन्तभद्राचार्य ने समस्त शास्त्रों को प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग के भेद से चार अनुयोगों में विभक्त किया है। मानव इन चार अनुयोगों का आश्रय कर अपने श्रुतज्ञान रूप सम्यग्ज्ञान को पुष्ट कर सकता है। अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान तो तत्तत् आवरणों का अभाव होने पर स्वयं प्रगट होते हैं, उनमें मनुष्य का पुरुषार्थ नहीं चलता है किन्तु अनुयोगात्मक श्रुतज्ञान में पुरुषार्थ द्वारा आत्मकल्याण करना शक्य है। इसका लोकोत्तर गौरव का बोध तो इस ज्ञान