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अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011
अतिचार बताये हैं
सचित्तनिक्षेपापिधानपरव्यपदेशमात्सर्यकालातिक्रमाः।
इसमें परव्यपदेश और कालातिक्रम ये दो अतिचार भिन्न हैं। दूसरे दातार के द्वारा देने योग्य वस्तु को देना अथवा स्वयं आहार न देकर नौकर आदि से दिलवाना ये परव्यपदेश नामक अतिचार है। यह अतिचार अनादर का ही रूपान्तर प्रतीत होता है। किन्तु कालातिक्रम भिन्न है। इस संदर्भ में अन्य आचार्यों ने भी आचार्य उमास्वामी का ही अनुकरण किया है।
उपसंहार - वर्तमान समय में वैयावृत्य का स्वरूप अधिकतर जनसमुदाय को ज्ञात नहीं है और न ही उन्होंने इसके विषय में कभी अध्ययन करने का विचार किया है। अधिकांशतः सभी का अभिप्राय होता है कि नगर /ग्राम में साधु संघ अथवा आर्यिका संघ आया है तो शाम को उनके हस्त, पाद, मस्तक आदि दबाना ही वैयावृत्य है। कोई पूछता है कि कहाँ से आ रहे हैं? जवाब आता है कि वैयावृत्य करके आ रहे हैं। वे समझते हैं कि यही वैयावृत्य है, परन्तु ऐसा नहीं है अपितु अन्य और भी साधु वर्ग की आवश्यकताओं की पूर्ति करना भी वैयावृत्य है। यहाँ आवश्यकता का आशय है- जो साधुवर्ग के ज्ञानध्यान-तप में साधक बनें उन वस्तुओं की पूर्ति करना यथा- शास्त्रदान, स्वास्थ्य सम्बन्धी एवं अध्ययनोपयोगी सामग्री की व्यवस्था करना।
___ कुछ लोगों के मन में विपरीत मान्यताएं हैं जिसका कारण है स्वाध्याय में अप्रवृत्ति, वे लोग शास्त्र सम्मत चर्चायें कभी नहीं कर सकते हैं। वे कहते हैं कि साधुवर्ग को तेल आदि लगाकर हस्तादि की मालिश करना दोषपूर्ण है क्योंकि उनके ऐसा करने से लेपाहार हो जाता है और उनके आहार ग्रहण का दोष आता है। परन्तु लेपाहार क्या कहलाता है? और किनके होता है? यह जानना आवश्यक है। आचार्यों ने लेपाहार वृक्षों आदि के कहा है। जो वातावरण से कार्बन-डाई-ऑक्साइड और जमीन से जल आदि से पोषक तत्त्वों को ग्रहण करते हैं वह लेपाहार कहलाता है।
वैयावृत्य करने वाले का ही मुख्यतया भला होता है क्योंकि वैयावृत्य से महान् पुण्य का बन्ध होता है। साधु का उससे ज्यादा कोई उपकार नहीं होता क्योंकि वैयावृत्य करने के उपरान्त अगले दिन उनकी स्थिति पुन: पहले जैसी हो जाती है और यदि कोई साधु स्वयं मंगवाकर तेलादि से हाथ-पैर आदि की मालिश करवाते हैं तो निश्चित रूप से वे साधु भी सदोष हैं। अतः हमें वैयावृत्य अपने पापों के प्रक्षालन के लिए करना चाहिए।
भगवती आराधना में आचार्य शिवार्य लिखते हैं कि वैयावृत्य करने वाले को बहुत से गुणों की प्राप्ति होती है। केवल स्वाध्याय करने वाला स्वयं की ही उन्नति कर सकता है जबकि वैयावृत्य करने वाला स्वयं को एवं अन्य को दोनों को उन्नत बनाता है। स्वाध्याय करने वाले पर यदि विपत्ति आती है तो उसको वैयावृत्य करने वाले की ओर ही मुड़कर देखना होता है। वैयावृत्य समाधि की प्राप्ति, विचिकित्सा का अभाव और प्रवचन वात्सल्य की अभिव्यक्ति के लिए की जाती है और जो सम्यग्दृष्टि जीव वैयावृत्य करता है वह उसके लिए निर्जरा का कारण बनती है। यदि कोई वैयावृत्य नहीं करता है