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अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011
अर्थात् तपरूप धन से युक्त तथा सम्यग्दर्शनादि गुणों के भण्डार गृहत्यागी मुनीश्वर के लिए विधि-द्रव्य आदि सम्पत्ति के अनुसार प्रतिदान और प्रत्युपकार की अपेक्षा से रहित धर्म के निमित्त जो दान दिया जाता है वह वैयावृत्य कहलाता है। दु:खनिवृत्ति जिसका प्रयोजन है उसे वैयावृत्य कहते हैं। अन्य आचार्यों ने वैयावृत्य के स्थान पर अतिथिसंविभाग शब्द का प्रयोग भी किया है। अतिथिसंविभाग व्रत में जिस प्रकार अतिथि के लिये दान की प्रधानता है उसी प्रकार वैयावृत्य में भी दान की प्रधानता है क्योंकि आहारादि दान के द्वारा अतिथि की दु:खनिवृत्ति का ही प्रयोजन सिद्ध होता है । अतिथिसंविभाग शब्द में मात्र चार प्रकार के दानों का समावेश होता है। उसके अतिरिक्त संयमीजनों की जो सेवा सुश्रूषा है उसका समावेश नहीं होता और वैयावृत्य शब्द में दान और सेवा-सुश्रूषा सबका समावेश होता है इसलिए समन्तभद्रस्वामी ने 'वैयावृत्य' इस व्यापकशब्द को स्वीकृत किया है। समन्तभद्रस्वामी जैनन्याय के जनक के रूप में विख्यात हैं, अत: उनके द्वारा सभी विषयों में समीचीन रूप से विचार करके ही किसी विषय का प्रतिपादन किया गया है। इस कारण से ही इन्होंने 'वैयावृत्य' जो व्यापक शब्द है उसको शिक्षाव्रत में सम्मिलित किया है।
इसी सन्दर्भ में आचार्य समन्तभद्रस्वामी ने वैयावृत्य की एक और परिभाषा निर्दिष्ट करते हुए कहा है -
व्यापत्तिव्यपनोदः पदयोः संवाहनं च गुणरागात् । वैयावृत्यं यावानुपग्रहोऽन्योऽपि संयमिनाम्॥
अर्थात् सम्यग्दर्शनादि गुणों की प्रीति से देशव्रत और सकलव्रत के धारक संयमीजनों पर आगत नाना प्रकार की आपत्ति को दूर करना, पैरों का उपलक्षण से हस्तादि अंगों का दबाना और इसके सिवाय अन्य भी जितना उपकार है वह सब वैयावृत्य कहा जाता है। व्यवहार नय से परस्पर की सहानुभूतिपूर्ण प्रवृत्ति से ही चतुर्विध मुनिसंघ का निर्वाह होता है। गृहस्थ मुनिधर्म की शिक्षा लेने के उद्देश्य से शिक्षाव्रतों का पालन करता है इसीलिये उसके शिक्षाव्रतों में वैयावृत्य नाम रखा गया है। वैयावृत्य करते समय किसी प्रकार की ग्लानि या मान-सम्मान का भाव नहीं रखना चाहिये क्योंकि स्वार्थबुद्धि से किया गया वैयावृत्य धर्म का अंग नहीं हो सकता । जो सेवा किसी स्वार्थबुद्धि से की जाती है तो वह श्ववृत्ति (कुक्कुरवृत्ति) कहलाती है और जब नि:स्वार्थ भाव से की जाती है तब परमधर्म कहलाती है अर्थात् कर्म-निर्जरा का कारण मानी जाती है।
अन्य आचार्यों ने भी वैयावृत्य के लक्षण अथवा परिभाषा को अपने ग्रन्थों में उल्लिखित किया है -
आचार्य कार्तिकेयस्वामी लिखते हैं कि - "जो मुनि उपसर्ग से पीड़ित हों और बुढ़ापे आदि के कारण जिनकी काया क्षीण हो गई हो, उन मुनियों का जो अपनी पूजा प्रतिष्ठा की अपेक्षा न रखते हुए सत्कार करता है वह वैयावृत्य तप का पालन करता है। गुणी पुरुषों के दु:ख में आ पड़ने पर निर्दोष विधि से उनका दु:ख दूर करना वैयावृत्य भावना है।