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रत्नकरण्डक श्रावकाचार के परिप्रेक्ष्य में वैयावृत्यः दान भी, धर्म भी
-आलोक कुमार जैन
भारतीय संस्कृति में दो परम्पराओं का उल्लेख मिलता है। जिनमें से एक वैदिक परम्परा, दूसरी श्रमण परम्परा। श्रमण परम्परा में भी दो दर्शन समान रूप से सम्मिलित हैंएक बौद्धदर्शन, दूसरा जैनदर्शन। प्रत्येक दर्शन में भिन्न-भिन्न अवधारणायें हैं जिनमें कोई निवृत्तिपरक है तो कोई प्रवृत्तिपरक है, जिसमें जैनदर्शन दोनों अवधारणाओं का समन्वय करता हुआ पूर्व में प्रवृत्ति का पालन करने का उपदेश देता है और पीछे धीरे-धीरे प्रवृत्ति को छोड़कर निवृत्ति में पहुँचने को कहता है।
जैनधर्म तथा दर्शन की परम्परा अनादि-अनन्त है, जो अनादिकाल से अविच्छिन्न रूप से प्रवाहमान रही है और अनन्तकाल तक निर्बाध रूप से प्रवाहित रहेगी। जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक जीव के अन्तस् में भगवद् शक्ति निहित है जिसको वह प्रकट कर ले तो स्वयं ईश्वर बन सकता है। जैनदर्शन ऐसा दर्शन है जो स्वकल्याण करने का उपदेश तो देता ही है साथ में परकल्याण करने का भी उपदेश देता है। पूज्य आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है
आदहिदं कादव्वं आदहिदे परहिदं च कादव्वं ।
आदहिद परहिदादो आदहिदं सुट्ठ कादव्वं ॥ जिस प्रकार तीर्थकर पहले स्वकल्याण करते हैं और केवलज्ञान हो जाने पर विश्व के समस्त प्राणियों को उनके हित का उपदेश देकर सबका कल्याण करते हैं। विश्व के समस्त प्राणियों का हित चाहने वाला होने के कारण ही उन्हें तीर्थकर प्रकृति का बन्ध होता है
और तीर्थकरत्व प्राप्त करने के बाद अरहंतावस्थापर्यन्त दिव्यध्वनि के माध्यम से सबका कल्याण करते हैं। धन्य हैं वे तीर्थकर, और धन्य है उनकी विश्वहित भावना। वह तीर्थकर पद और वह भावना किस प्रकार से प्राप्त हो इस पर आचार्य कहते हैं कि वह भावना हमारे अन्तरंग में वैयावृत्य से उत्पन्न हो सकती है, जो स्वपर हितकारिणी है। इससे स्वयं का कल्याण तो होता ही है साथ में पर का कल्याण भी होता है। जब दूसरे की वैयावृत्य करते हैं तो ये हमारे अन्तरंग के धर्मस्वभाव को प्रकट करता है जिससे पर को स्वयं की वस्तु अथवा अन्य प्रकार का सहयोग भी मिलता है तो दान भी हो जाता है। अतः आचार्यों ने वैयावृत्य को दान एवं धर्म को दोनों रूपों में स्वीकार किया है। वैयावृत्य का लक्षण करते हुए आचार्य समन्तभद्रस्वामी कहते हैं कि
दानं वैयावृत्यं धर्माय तपोधनाय गुणनिधये। अनपेक्षितोपचारोपक्रियमगृहाय विभवेन।