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अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011
उन्हें यथाशक्ति करना चाहिए।
प्रतिक्रमण के संदर्भ में 'पं. रतनचन्द जैन मुख्तारः व्यक्तित्व और कृतित्व' में निम्नलिखित प्रकार से विचार व्यक्त किये गये हैं जो दृष्टव्य हैं
व्रत में लगे हुए दोषों का पश्चाताप प्रतिक्रमण है तथा आगामी काल के लिए दोषों का त्याग करना प्रत्याख्यान है। जहाँ पर प्रतिक्रमण होता है वहीं पर प्रत्याख्यान भी अवश्य होता है, क्योंकि पिछले दोषों का वास्तविक प्रतिक्रमण वहीं पर होता है जहां पर साथ-साथ यह दृढ़ त्याग होता है कि आगामी ऐसे दोष नहीं लगाऊँ। अव्रती के कोई व्रत ही नहीं होते जिसमें दोष लगे और जिनका वह प्रतिक्रमण करे और न वह आगामी व्रत धारण करके पूर्व कृत दोषों को त्यागने के लिए कटिबद्ध है फिर अव्रती के प्रतिक्रमण कैसे संभव है? प्रथम प्रतिमा से व्रत प्रारंभ हो जाते हैं और वहीं पर प्रतिक्रमण प्रारंभ हो जाता है। आचार्यों ने भी प्रथम प्रतिमा से ग्यारहवीं प्रतिमा तक श्रावकों के लिये और महाव्रतधारी मुनियों के लिए प्रतिक्रमण पाठ रचे हैं, किन्तु अव्रती के लिए किसी भी आचार्य ने प्रतिक्रमण पाठ नहीं रचा। कालदोष से कुछ ऐसे भी जीव उत्पन्न हो गए हैं जो त्यागी का भेष धारण करके आगमविरुद्ध पुस्तकें रचने लगे हैं और उनको प्रकाशित करके केवल अपने आप ही नहीं, किन्तु अन्य को भी कुगति का पात्र बनाते हैं।
उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि श्रावकाचार संग्रह में शिक्षाव्रतों के स्वरूप में सामायिक शिक्षाव्रत को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। जिसका विवेचन विस्तार से प्राप्त होता है। प्रतिमाओं के विवेचन में सामायिक प्रतिमा की विवेचना विस्तार से की गई है। जिसका महत्त्व पूर्व में हम विवेचित कर आये हैं। प्रतिक्रमण के स्वरूप, विधि और महत्त्व के संबन्ध में अमितगति श्रावकाचार के अतिरिक्त अन्य श्रावकाचारों में श्रावक के षट् आवश्यक में मात्र उल्लेख मिलता है। उसका स्वरूप, विधि एवं महत्त्व के संबन्ध में आचार्यों ने कलम नहीं चलायी है, यही कारण है कि दिगम्बर परंपरा में श्रावकों में प्रतिक्रमण करने की परम्परा नगण्य है। इससे सिद्ध है कि श्रावकों को सामायिक आवश्यक है परन्तु प्रतिक्रमण आवश्यक नहीं है।
संदर्भ1. जो कुणदि काएस्सग्गं वारस आवत संजुदो धीरो।
णमणदुर्ग पि कुणतो चदुप्पमाणो प सण्णप्पा।। प्र.भा.श्रा. स्वामीकार्तिकेयानुपेक्षा श्रा. धर्म श्लोक पृ. 26 चिंततो ससरूवं जिणबिम्ब अहव अक्खरं परमं।
झायदि कम्मविवायं तस्स वयं होदि सामइयं।। वही श्लोक 71 2. आप्तसेवोपदेशः स्यात्समयः समयार्थिनाम्।
नियुक्तं तत्र यत्कर्म तत्सामायिकमचिरें।। शि.व.उपा.ति.चम्पू श्लोक पृष्ठ 26
मूलव्रतं व्रतान्यर्चा....... वही श्लोक 821 3. सामायिके सारम्भाः परिग्रहा नैव सन्ति सर्वेऽपि।