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अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011
धर्मद्रव्य की सत्ता वैज्ञानिक भी ईथर नामक पदार्थ के रूप में स्वीकार करते हैं। धर्मद्रव्य तीनों लोकों में तिल में तेल के समान भरा हुआ है। यह एक ही द्रव्य है। यह असंख्यात प्रदेशी होता है क्योंकि लोकाकाश के भी असंख्यात प्रदेश हैं और यह सम्पूर्ण लोकाकाश में फैला हुआ है इसलिए यह असंख्यात प्रदेश वाला है।
अधर्म द्रव्य- जो जीव और पुद्गलों को ठहरने में उदासीन रूप से सहायक है वह अधर्मद्रव्य है। जैसे- पथिक को ठहरने में वृक्ष की छाया सहायक होती है। यहां पर भी विशेष बात यह है कि अधर्मद्रव्य मात्र ठहरते हुए जीव और पुद्गल को ही ठहरने में सहायक है न कि किसी को जबरदस्ती रोकता है क्योंकि यह ठहरने में उदासीन रूप से सहायक है सक्रिय रूप से नहीं। यह द्रव्य भी सम्पूर्ण लोकाकाश में तिल में तेल के समान भरा हुआ है। इसलिए यह भी असंख्यात प्रदेश वाला है। यह द्रव्य भी एक ही है।
आकाशद्रव्य- जो समस्त द्रव्यों को ठहरने के लिए अवगाह अर्थात् स्थान देता है उसे आकाशद्रव्य कहते हैं। यह द्रव्य भी एक ही है। परन्तु जितने स्थान में छहों द्रव्य पाई जाती हैं वह लोकाकाश कहलाता है और शेष भाग अलोकाकाश कहलाता है। वैसे तो आकाश द्रव्य अनन्त प्रदेशी है परन्तु लोकाकाश असंख्यात प्रदेश वाला है। अलोकाकाश में मात्र आकाश ही आकाश है वहां अन्य कोई भी द्रव्य नहीं पाई जाती है। अवगाहनत्व आकाशद्रव्य का उपकार है।
कालद्रव्य- जो स्वयं पलटते हुए अन्य द्रव्यों को भी पलटने में सहायक होता है उसे कालद्रव्य कहते हैं। कालद्रव्य के दो भेद हैं- व्यवहारकाल और निश्चयकाल ।
व्यवहारकाल- जो क्रम से अतिसूक्ष्म होता हुआ प्रदर्शित होता है वह व्यवहार काल कहलाता है। यद्यपि व्यवहारकाल, निश्चयकाल का पर्याय है तथापि जीव-पुद्गल के परिणामों से वह जाना जाता है। इसलिए जीव-पुद्गलों के नवजीर्णता रूप से कहा जाता है कि घड़ी, घण्टा, महीना, वर्ष आदि को व्यक्त करता है वह व्यवहारकाल है।
निश्चयकाल- वर्तना ही लक्षण है जिसका वह है निश्चयकाल। व्यवहारकाल का जो आधार है अथवा हेतु है वह निश्चयकाल कहलाता है। यह नित्य है, क्योंकि वह अपने गुण-पर्याय स्वरूप द्रव्य से सदा अविनाशी है। निश्चयकाल समयादि व्यवहारकाल में अविनाभाव निमित्त होने से अस्तित्व को धारण करता है क्योंकि पर्याय से पर्यायी का अस्तित्व ज्ञात होता है। कालद्रव्य रत्नों की राशि के समान एक प्रदेशी होता है परन्तु अनन्त समय वाला होता है इसलिए एक प्रदेशी होने के कारण इसको कायवान् नहीं कहा गया है। यह अस्तिकाय की कोटि में नहीं रखा गया। वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व ये कालद्रव्य के उपकार हैं।
द्रव्यों की विशेषतायें- परिमाण की अपेक्षा से कथन करने पर ज्ञात होता है कि जीव और पुद्गल द्रव्य अनंतानंत हैं, धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य एक-एक हैं एवं काल द्रव्य असंख्यात हैं। मूर्तिक-अमूर्तिक की अपेक्षा धर्म, अधर्म, आकाश और काल अमूर्तिक एवं पुद्गल मूर्तिक और जीव द्रव्य मूर्तिक-अमूर्तिक दोनों है। सक्रियता की अपेक्षा जीव और पुद्गल द्रव्य ही सक्रिय हैं शेष चारों द्रव्य निष्क्रिय हैं। प्रदेशों की अपेक्षा एक जीव,