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अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 अर्थात् स्वर्ग एवं मोक्ष के इच्छुक आर्यजन जिनेन्द्र भगवान् के शासन रूपी श्रेष्ठ अमृत में सारभूत, लोगों के द्वारा रखे गये सर्वार्थसिद्धि नाम से प्रख्यात इस तत्त्वार्थवृत्ति को सतत हृदय से धारण करें।
भारतीय परम्परा में अनेक दर्शनों ने जन्म लिया है, किन्तु चार्वाक को छोड़कर सभी का लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है।
सर्वार्थसिद्धिकार आचार्य पूज्यपाद ने यद्यपि अपनी तत्त्वार्थवृत्ति में परमतखण्डन को महत्ता न देकर स्वसिद्धान्तप्रतिपादन में रुचि रखी है, तथापि प्रसंगवश अन्य दार्शनिकों के मन्तव्यों की भी समीक्षा की है।
१. बौद्धदर्शन समीक्षा- सर्वार्थसिद्धि की उत्थानिका में मोक्ष एवं उसकी प्राप्ति के उपाय के प्रसंग में पूज्यपादाचार्य ने 'प्रदीपनिर्वाणकल्पमात्मनिर्वाणम्' (जिस प्रकार दीपक बुझ जाता है, उसी प्रकार आत्मा की संतान का विच्छेद होना मोक्ष है) कहकर मोक्ष के संदर्भ में बौद्धों के दृष्टिकोण को रखा है। महाकवि अश्वघोष कहते हैं
'दीपो यथा निवृत्तिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम्। दिशं न काञ्चिद् विदिशं न काञ्चिद् स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम्।
(सौन्दरनन्द, 16/28) अर्थात् जैसे निर्वाण को प्राप्त दीपक न पृथिवी पर रहता है, न आकाश में जाता है, न किसी दिशा या विदिशा में, अपितु तेल के समाप्त हो जाने से बुझ जाता है (शान्ति को प्राप्त कर लेता है)। इसी अभिप्राय को पूज्यपादाचार्य ने अभिव्यक्त करते हुए बौद्धों के मोक्षविषयक इस विचार का 'खरविषाणकल्पना' (गधे के सींगों की कल्पना) कहकर निरसन किया है।
बौद्धदर्शन में सोपाधिशेष और निरुपाधिशेष द्विविध निर्वाण स्वीकृत है। प्रथम में अविद्या, तृष्णा आदि आस्रवों का विनाश होता है, जबकि द्वितीय में चित्तसन्तति भी नष्ट हो जाती है। दीपनिर्वाण की तरह द्वितीय निर्वाण है। प्रकृत में इसी निरुपाधिशेष निर्वाण की समीक्षा की गई है।
जैन परंपरा में प्रत्यक्ष एवं परोक्ष प्रमाणों के संदर्भ में अक्ष का अर्थ आत्मा किया गया है। जबकि बौद्ध अक्ष का अर्थ इन्द्रिय करके इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष मानते हैं। पूज्यपादाचार्य का कहना है कि बौद्धों द्वारा ऐसा मानने पर सर्वज्ञत्व के अभाव तथा सब पदार्थों को क्षणिक मानने की प्रतिज्ञाहानि का दोष उपस्थित हो जाता है। अत: उनका प्रत्यक्ष प्रमाण का लक्षण ठीक नहीं है। 'किञ्च सर्वज्ञत्वाभावः प्रतिज्ञाहानिर्वा' (सर्वार्थसिद्धि,1.12) कहकर बौद्धों का खण्डन किया गया है।
आचार्य पूज्यपाद का कहना है कि इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष एवं शेष को परोक्ष माना जायेगा तो योगियों के ज्ञान में प्रत्यक्षता नहीं बन पायेगी क्योंकि वह इन्द्रियनिमित्तक नहीं है, जबकि बौद्धदर्शन योगिज्ञान को प्रत्यक्ष स्वीकार करता है। वे कहते हैं'योगिप्रत्यक्षमन्यज्ज्ञानं दिव्यमप्यस्तीति चेत्। न तस्य प्रत्यक्षत्वम् इन्द्रियनिमित्तत्वाभावात्। अक्षमक्षं प्रति यद्वर्तते तत्प्रत्यक्षमित्यभ्युपगमात्।' (सर्वार्थसिद्धि,1.2) यतः सर्वज्ञता