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अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 साथ ही जब ग्रंथकर्ता का मुख्य लक्ष्य आलोचना करना होता है, तो वह अन्य परंपराओं के प्रस्तुतीकरण में न्याय भी नहीं करता है और उनकी अवधारणाओं को भ्रांतरूप में प्रस्तुत करता है। उदाहरण के रूप में स्याद्वाद और शून्यवाद के आलोचकों ने कभी भी उन्हें सम्यक् रूप से प्रस्तुत करने का प्रयत्न ही नहीं किया है। यद्यपि हरिभद्र ने भी अपनी कुछ कृतियों में अन्य दर्शनों एवं धर्मों की समीक्षा की है, अपने ग्रंथ धूर्ताख्यान में वे धर्म और दर्शन के क्षेत्र में पनप रहे अंधविश्वासों का सचोट खण्डन भी करते हैं, फिर भी इतना निश्चित है कि वे न तो अपने विरोधी के विचारों को भ्रांत रूप में प्रस्तुत करते हैं और न उसके संबन्ध में अशिष्ट भाषा का प्रयोग ही करते हैं। हरिभद्र ने अपने ग्रंथ शास्त्रवार्तासमुच्चय में कपिल को महामुनि और भगवान् बुद्ध को महाचिकित्सक कहा है, हरिभद्र के शास्त्रवार्तासमुच्चय में इस दृष्टिकोण का एक निर्मल विकास परिलक्षित होता है। अपने ग्रंथ शास्त्रवार्तासमुच्चय के प्रारंभ में ही ग्रंथ रचना का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए वे लिखते
यं श्रुत्वा सर्वशास्त्रेषु प्रायस्तत्त्वविनिश्चयः। जायते द्वेषशमनः स्वर्गसिद्धि सुखावहः।।
अर्थात् इसका अध्ययन करने से अन्य दर्शनों के प्रति द्वेष बुद्धि समाप्त होकर तत्त्व का बोध हो जाता है। इस ग्रंथ में वे कपिल को दिव्यपुरुष एवं महामुनि के रूप में सूचित करते हैं- (कपिलो दिव्यो हि स महामुनि:-शास्त्रवार्तासमुच्चय 237)। इसी प्रकार वे बुद्ध को भी अर्हत्, महामुनि, सुवैद्य आदि विशेषणों से अभिहित करते हैं (यतो बुद्धो महामुनिः सुवैद्य। (वही 465, 466)। यहाँ हम देखते हैं कि जहां एक ओर अन्य दार्शनिक अपने विरोधी दार्शनिकों का खुलकर परिहास करते हैं- न्यायदर्शन के प्रणेता महर्षि गौतम को गाय का बछड़ा या बैल और महर्षि कणाद को उल्लू कहते हैं, वहीं दूसरी ओर हरिभद्र जैसे जैन दार्शनिक अपने विरोधियों के लिए महामुनि और अर्हत् जैसे सम्मानसूचक विशेषणों का प्रयोग करते हैं। शास्त्रवार्तासमुच्चय में यद्यपि अन्य दार्शनिक अवधारणाओं की स्पष्ट समालोचना है, किन्तु संपूर्ण ग्रंथ में ऐसा कोई भी उदाहरण नहीं मिलता जहाँ हरिभद्र ने शिष्टता की मर्यादा का उल्लंघन किया हो। इसी प्रकार हरिभद्र ने अन्य परंपराओं की समालोचना में भी जिस शिष्टता और आदर-भाव का परिचय दिया, वह हमें जैन और जैनेतर किसी भी परंपरा में उपलब्ध नहीं होता है।
यद्यपि आचार्य हेमचन्द्र ने अन्ययोगव्यवच्छेदिका (प्रचलित नाम स्याद्वाद-मंजरी) में अन्य दर्शनों की व्यंगात्मक शैली में समालोचना की, किन्तु कहीं भी अन्य दर्शनों के प्रति अपशब्द का प्रयोग नहीं किया है। सम्यक् समालोचना की यह पंरपरा आगम युग में प्रारंभ होकर क्रमशः सिद्धसेन दिवाकर के सन्मतितर्क, समन्तभद्र की आप्तमीमांसा, मल्लवादीक्षमाश्रमण के द्वादशारनयचक्र, जिनभद्रगणी की विशेषणवती, विशेषावश्यकभाष्य, हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय, शास्त्रवार्तासमुच्चय, अनेकान्तजयपताका आदि ग्रंथों में, पुनः पूज्यपाद/ देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि, अकलंक के राजवार्तिक, अष्टशती, न्यायविनिश्चय आदि, विद्यानन्दी के श्लोकवार्तिक, अष्टसहस्री आदि, प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्तण्ड,