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अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011
तीसरी सामायिक प्रतिमा है, जिसमें सामायिक नामक प्रथम शिक्षाव्रत की परिपूर्णता, त्रैकालिक साधना और निरतिचार परिपालना अति आवश्यक है। दूसरी प्रतिमा में सामायिक शिक्षाव्रत अभ्यास दशा में था, अत: वहाँ पर दो या तीन बार करने का कोई बन्धन नहीं था, वह इतने काल तक सामायिक करें, इस प्रकार कालकृत नियम भी शिथिल था। पर तीसरी प्रतिमा में सामायिक का तीनों संध्याओं में किया जाना आवश्यक है और वह भी एक बार में कम से कम दो घड़ी या एक मुहूर्त (48 मिनिट) तक करना चाहिए। सामायिक का उत्कृष्ट काल छह घड़ी का है। साथ ही तीसरी प्रतिमाधारी को यथाजात रूप धारणकर सामायिक करने का विधान आचार्य समन्तभद्र ने स्पष्ट शब्दों में किया है। इस यथाजात पद से स्पष्ट है कि तीसरी प्रतिमाधारी को सामायिक एकान्त में नग्न होकर करना चाहिए। चामुण्डराय और वामदेव ने भी अपने संस्कृत भावसंग्रह में यथाजात होकर सामायिक करने का विधान किया है। इसका अभिप्राय यही है, इस प्रतिमा का धारक श्रावक प्रतिदिन तीन बार कम से कम दो घड़ी तक नग्न रहकर साधु बनने का अभ्यास करे। इस प्रतिमाधारी को सामायिक संबन्धी दोषों का परिहार भी आवश्यक बताया गया है। इस प्रकार तीसरी प्रतिमा का आधार सामायिक नाम का प्रथम शिक्षाव्रत
सामायिक शिक्षाव्रत और सामायिक प्रतिमा में अंतर
आचार्यों ने 'सर्वविरतातिलालसः खलु देशविरतिपरिणामः' कहकर सर्व पापों से निवृत्त होने का लक्ष्य रखना ही देशविरति का फल बताया है। यहां सर्व सावध विरति सहसा संभव नहीं है, इसके अभ्यास के लिए शिक्षाव्रतों का विधान किया गया है। स्थूल हिंसादि पाँचों पापों का त्याग अणुव्रत है और उनकी रक्षार्थ गुणव्रतों का विधान किया गया है। गृहस्थ प्रतिदिन कुछ समय तक सर्व सावध (पाप) के योग के त्याग का भी अभ्यास करें इसके लिए सामायिक शिक्षाव्रत का विधान किया गया है। अभ्यास को एकाशन या उपवास के दिन से प्रारंभ कर प्रतिदिन करते हुए क्रमशः प्रातः सायंकाल और त्रिकाल करने तक विधान आचार्यों ने किया है। यह दूसरी प्रतिमा का विधान है। इसमें काल का बन्धन और अतिचारों के त्याग का नियम नहीं है, हाँ उनसे बचने का प्रयास अवश्य किया है। सकलकीर्ति ने एक वस्त्र पहिन कर सामायिक करने का विधान किया है।
किन्तु तीसरी प्रतिमाधारी को तीनों सन्ध्याओं में कम से कम दो घड़ी तक निरतिचार सामायिक करना आवश्यक है। वह भी शास्त्रोक्त कृतिकर्म के साथ और यथाजातरूप धारण करके। रत्नकरण्डक के इस 'यथाजात' पद के ऊपर वर्तमान के व्रतीजनों या प्रतिमाधारी श्रावकों ने ध्यान नहीं दिया है। समन्तभद्र ने जहाँ सामायिक शिक्षाव्रती को 'चेलोपसृष्टमुनिरिव' (वस्त्र से लिपटे मुनि के तुल्य) कहा है, वहाँ सामायिक प्रतिमाधारी को यथाजात (नग्न) होकर के सामायिक करने का विधान किया है। चारित्रसार में भी यथाजात होकर सामायिक करने का निर्देश है और व्रतोद्योतन श्रावकाचार में तो बहुत स्पष्ट शब्दों में 'यथोत्पन्नस्तथा भूत्वा कुर्यात्सामायिकं च सः' कहकर जैसा नग्न उत्पन्न होता है वैसा ही नग्न होकर सामायिक करने का विधान तीसरी