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अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011
वैदिक परंपरा में दर्शन संग्राहक ग्रंथों में तीसरा स्थान माधव सरस्वती कृत 'सर्वदर्शनकौमुदी' का आता है। इस ग्रंथ में दर्शनों को वैदिक और अवैदिक ऐसे दो भागों में बांटा गया है। अवैदिक दर्शनों में चार्वाक, बौद्ध और जैन ऐसे तीन भेद तथा वैदिक दर्शन में तर्क, तन्त्र और सांख्य ऐसे तीन भाग किये हैं। इस ग्रंथ की शैली भी मुख्यरूप से खण्डनात्मक ही है। अत: हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय जैसी उदारता और निष्पक्षता इसमें भी परिलक्षित नहीं होती है। वैदिक परंपरा के दर्शनसंग्राहक ग्रंथों में चौथा स्थान मधुसूदन सरस्वती के 'प्रस्थान भेद' का आता है। मधुसूदन सरस्वती ने दर्शनों का वर्गीकरण आस्तिक और नास्तिक के रूप में किया है। नास्तिक-अवैदिक दर्शनों में वे छह प्रस्थानों का उल्लेख करते हैं। इसमें बौद्ध दर्शन के चार संप्रदाय तथा चार्वाक और जैनों का समावेश हुआ है। आस्तिक-वैदिक दर्शनों में न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा का समावेश हुआ है। इन्होंने पाशुपत दर्शन एवं वैष्णव दर्शन का भी उल्लेख किया है। पं. दलसुखभाई मालवणिया के अनसार प्रस्थान भेद के लेखक की एक विशेषता अवश्य है जो उसे पूर्व उल्लिखित वैदिक परंपरा के अन्य दर्शन संग्राहक ग्रंथों से अलग करती है। वह यह कि इस ग्रंथ में वैदिक दर्शनों के पारस्परिक विरोध का समाधान यह कह कर किया गया है कि इन प्रस्थानों के प्रस्तोता सभी मुनि भ्रांत तो नहीं हो सकते, क्योंकि वे सर्वज्ञ थे। चूँकि बाह्य विषयों में लगे हुए मनुष्यों का परम पुरुषार्थ में प्रविष्ट होना कठिन होता है, अतएव नास्तिकों का निराकरण करने के लिए इन मुनियों ने दर्शन प्रस्थानों के भेद किये हैं। इस प्रकार प्रस्थान भेद में यत्किचित् उदारता का परिचय प्राप्त होता है। किन्तु यह उदारता केवल वैदिक परंपरा के आस्तिक दर्शनों के संदर्भ में ही है, नास्तिकों का निराकरण करना तो सर्वदर्शनकौमुदीकार को भी इष्ट ही है। इस प्रकार दर्शन संग्राहक ग्रंथों में हरिभद्र की जो निष्पक्ष और उदार दृष्टि है वह हमें अन्य परंपराओं में रचित दर्शन संग्राहक ग्रंथों में नहीं मिलती है। यद्यपि वर्तमान में भारतीय दार्शनिक परंपराओं का विवरण प्रस्तुत करने वाले अनेक ग्रंथ लिखे जा रहे हैं किन्तु उनमें भी लेखक कहीं न कहीं अपने इष्ट दर्शन और विशेष रूप से वेदान्त को ही अंतिम सत्य के रूप में प्रस्तुत करते हुए प्रतीत होते हैं।
हरिभद्र के पश्चात् जैन परम्परा में लिखे गये दर्शन संग्राहक ग्रंथों में अज्ञातकृत 'सर्वसिद्धान्तप्रवेशक' का स्थान आता है। किन्तु इतना निश्चित है कि यह ग्रंथ किसी जैन आचार्य द्वारा प्रणीत है क्योंकि इसके मंगलाचरण में-"सर्वभाव प्रणेतारं प्रणिपत्य जिनेश्वर" ऐसा उल्लेख है। पं. सुखलाल संघवी के अनुसार प्रस्तुत ग्रंथ की प्रतिपादन शैली हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय का ही अनुसरण करती है। अन्तर मात्र यह है कि जहां हरिभद्र का ग्रंथ पद्य में है वहाँ सर्वसिद्धान्तप्रवेशक गद्य में है। साथ ही यह ग्रंथ हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय की अपेक्षा कुछ विस्तृत भी है।
जैन परंपरा के दर्शन संग्राहक ग्रंथों में दूसरा स्थान जीवदेवसूरि के शिष्य आचार्य जिनदत्तसूरि (विक्रम संवत् 1265) के 'विवेकविलास' का आता है। इस ग्रंथ के अष्टम उल्लास में षड्दर्शनविचार नामक प्रकरण है। जिसमें जैन, मीमांसक, बौद्ध, सांख्य, शैव