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अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011
ब्राह्मणा व्रतसंस्कारात् क्षत्रिया शस्त्रधारणात् । वणिजो ऽर्थार्जनान्यायाच्छूदा न्यग्वृत्तिसंश्रयात् ॥
इस प्रकार भगवान् ऋषभदेव सुदीर्घकाल तक समुद्रान्त पृथिवी का पूरी कुशलता से सुशासन करते रहे। आर्थिक असमानता और सामाजिक वैषम्य का मुख्य कारण हमारे अन्दर की लालसा / लोभ / इच्छा और स्वार्थ है। इच्छाओं के कारण परिग्रह और संग्रह सामाजिक प्रदूषण है।
प्रत्येक कार्य जिससे धन सम्पत्ति उत्पन्न होती है उत्पादक कहा जाता है। भूमि, श्रम, पूंजी तथा प्रबन्ध धन के उत्पादन में मुख्य कारण हैं, जिन्हें अर्थशास्त्र के उत्पादन के साधन कहा जाता है। भूमि को छोड़कर बाकी सब प्रकार का धन पूँजी के अन्तर्गत आता है।
प्रबन्धकर्ता का काम है उद्योग धन्धों की योजना बनाना, भूमि, श्रम और पूंजी को उचित अनुपात में एकत्र करना तथा जरूरत होने पर नुकसान सहने के लिए तैयार रहना । कमाये हुए धन को अथवा अपनी वार्षिक आय को अपने पेशे से संबन्धित लोगों में बँटवारा करना विभाजन का मुख्य हेतु है। विभाजन की चार मुख्य अवस्थायें हैं- किराया मजदूरी, ब्याज, और लाभ
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वास्तव में मानव की सभी क्रियाओं का आधार भूमि ही है। आचार्य कौटिल्य ने मानवों से युक्त भूमि को "अर्थ" कहा है- मनुष्यवती भूमिरित्यर्थः । आज भी इसका व्यापाक तात्पर्य ग्राह्य है। क्योंकि भूमि किसी भी अर्थव्यवस्था का आधारभूत तत्त्व है। कृषि प्रधान सामाजिक व्यवस्था में भूमि का बहुआयामी महत्त्व होता है वह अचल संपत्ति होती है और समाज के लिए आवश्यक विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का उत्पादन कर उपभोक्ताओं तक पहुंचाना होता है। बाजार उत्पादित वस्तुएँ, सेवायें, आधारभूत संरचना एवं व्यापार से सम्बद्ध अधिकारीगण ये सभी वाणिज्य एवं व्यापार को एक व्यवस्थित आकार प्रदान करते हैं। आर्थिक व्यवस्था में विनियम का महत्त्वपूर्ण हाथ रहता है। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। अन्तर्देशीय व्यापार, आयात-निर्यात, यानवाहन आदि विनिमय के साधन हैं।
भगवान् आदिनाथ ने अर्थार्जन के अशुद्ध साधनों से बचने की बात कही। एक सच्चा जैन कभी चोरी का माल नहीं खरीदता। राज्य निषिद्ध वस्तु का आयात-निर्यात नहीं करता। झूठा तोल - माप नहीं करता। असली वस्तु दिखाकर नकली वस्तु नहीं देता । बारह व्रतों की व्याख्या करते हुए भगवान् महावीर ने कहा था- 'ऐसा व्यापार मत करो जिसमें पन्द्रह कर्मादानों का समावेश हो ।' आज की भाषा में कहा जा सकता है कि जैन श्रावक अपने व्यवसाय में शस्त्रों का निर्माण न करे। अभक्ष्य पदार्थ, मादक नशीले पदार्थों का उत्पादन न करे। क्रूरता पूर्वक हिंसाजनित साधनों का व्यापार न करे। अर्थ की अंधी दौड़ में ऐसे व्यवसाय जैन समाज में खड़ा न हो जो न जैन सिद्धांतों, आदर्शों और संस्कारों के अनुकूल हो और न राष्ट्र की गरिमानुकूल ।
आदिपुराण में प्रजा को कुल की भांति एकत्र कर कुलकरों ने उपदेश दिया।