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अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011
समाज व्यवस्था प्रतिपादित की। आदिपुराण में प्रजानां प्रीणन (३/६८) पद आया है। प्रजा के साथ सम्बन्ध रहने से प्रीणन का अर्थ सामाजिक दृष्टि से संरक्षण, संग्रहण और वितरण है। एक शब्द में इसे हम सामाजिक चेतना कह सकते हैं। व्यक्ति की सामाजिक चेतना ही इसमें सामाजिकता उत्पन्न करती है। आदिपुराण में चित्रित समाज का प्रत्येक सदस्य के साथ सहयोग और सहकारिता का जीवन यापन करने का अभ्यासी है
सर्वेऽपि समसंभोगाः सर्वे समसुखोदयाः। सर्वे सर्वर्तुजान् भोगान् यत्र विन्दन्त्यनामयाः॥
आदिपुराण में (पर्व 11/181-183) राजा का सबसे आवश्यक कार्य स्वराष्ट्र की अभिवृद्धि करना, उसकी रक्षा करना एवं प्रजा को सभी प्रकार से सुखी बनाना था। राष्ट्रकल्याण के लिए राजा अपने मंत्रियों से परामर्श करता था। आदिपुराण (पर्व 42/137-198) के अनसार प्रजा की भलाई के लिए जितने भी कार्य किये जा सकते हैं, राजा को वे सभी कार्य करने चाहिए। पुराण में (116-158) प्रतिपादित भारत का शासन ग्रामीण पद्धति से होता था। प्रत्येक गांव राष्ट्र का अंग समझा जाता था, उसी की सुव्यवस्था से समस्त राज्य की सुव्यवस्था समझी जाती थी। भारत का संगठन ग्रामों पर निर्भर था। प्रत्येक गांव का एक मुखिया होता था जो गांव की तत्कालीन आवश्यकताओं की पूर्ति करता और उत्पन्न हुई कठिन समस्याओं को दण्ड धर्माधिकारी या अन्य पदाधिकारियों से निवेदित करता था।
आदिपुराण की मान्यता है कि दरिद्रता समस्त कष्टों का घर है। इसलिए 'अहो कष्टा दरिद्रता' (26/49) द्वारा अधिक समृद्धि को सुख का हेतु होने का संकेत दिया है। प्रजा की आर्थिक उन्नति किन-किन साधनों से हो सकती है, ग्रामीण क्षेत्र का विकास किस प्रकार किया जा सकता है। इन सब बातों का राजा को ध्यान रखना चाहिए। राज्य में अर्थ-वृद्धि हेतु कृषि, व्यापार, उद्योग-धंधे आदि की प्रगति, राष्ट्रीय साधनों का विकास, खानों की खुदाई, वनों का संरक्षण, कृषि की सिंचाई आदि का प्रबन्ध भी संपन्न किया जाता है। राज्य के कार्यों का क्षेत्र जीवन के सभी पहलू-सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक तक विस्तृत है। आदिपुराण कालीन भारत की आर्थिक व्यवस्था समृद्ध थी। कृषक वर्ग, व्यवसायी सभी संतुष्ट एवं प्रसन्न थे।
क्षत्रिय वर्ग की सृष्टि करने के बाद ऋषभदेव ने प्रजा के योगक्षेम के लिए हा, मा, और धिक् इन तीन दण्डों का विधान बतलाया है। दण्डविधान लागू करने के लिए राजा की आवश्यकता हुई। क्योंकि राजा ही अपने पराक्रम से दुष्टों का निग्रह और सज्जनों का पालन कर सकता है। इसलिए उन्होंने हरि, अकम्पन, काश्यप और सोमप्रभ इन चार महाभाग्यशाली क्षत्रियों को महामाण्डलिक राजा बनाया और राज्य संचालन के निमित्त प्रजा से कर (टैक्स) वसूल करने का विधान बताया। यहाँ यह भी कहा कि प्रजा से उतना ही अंश कर के रूप में लिया जाय जिसके कारण उसे (प्रजा को) कष्ट का अनुभव न
वैश्य- जो मनुष्य कृषि, व्यापार, पशुपालन द्वारा न्यायपूर्वक धन अर्जित करके