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अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011
12. आदिपुराण 16/171
13. आदिपुराण 4 / 848-869 14. आदिपुराण
15. आदिपुराण में प्रतिपादित भारत पृ. 338
16. आदिपुराण 16 / 181
17. आदिपुराण में प्रतिपादित भारत पृ. 340
18. आदिपुराण 16/157
19. आदिपुराण 17/24
20. आदिपुराण 4/72
21. आदिपुराण 5/104
22. आदिपुराण 5/259
23. आदिपुराण 4 / 171
24. आदिपुराण 35/40
25. आदिपुराण 41 / 139 26. कौटिल्य अर्थशास्त्र पृ. 15
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-स. प्रा. संस्कृत विभाग,
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महारानी लक्ष्मीबाई शा. उत्कृष्ट महाविद्यालय, ग्वालियर ( म०प्र० )
सज्जन - दुर्जन
सुजनः सुजनीकर्तुमशक्तो यच्चिरादपि ।
खलः खलीकरोत्येव जगदाशु तदद्भुतम् ॥1/901 महापुराण
यह एक आश्चर्य की बात है कि सज्जन पुरुष चिरकाल के सतत प्रयत्न से भी जगत् को अपने समान सज्जन बनाने के लिए समर्थ नहीं हो पाते परन्तु दुर्जन पुरुष उसे शीघ्र ही दुष्ट बना लेते हैं। इससे यह स्पष्ट है कि सारा लोक अशुभ कार्यों में अधिक प्रभावित होता है। इसका प्रमुख कारण है उसके पूर्व के संस्कार क्योंकि अनादिकाल से काम, भोग और बन्ध की कथा सुनता रहा है।