________________
अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011
आत्मनिर्भर स्वरूप स्पष्ट होता है। आदिपुराण में वर्णित है कि गांवों में कृषकों के साथ लोहार, नाई, दर्जी, धोबी, बढ़ई, राजगीर, चर्मकार, वैद्य, पंडित सभी प्रकार का व्यवसाय करने वाले तथा क्षत्रिय आदि सभी वर्ण के व्यक्ति निवास करते थे। ये विविध व्यावसायिक व्यक्ति अपने-अपने पेशे के अनुसार काम करके गांव की आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे एवं गाँवों को स्वावलम्बी बनाते थे। आदिपुराण (16/168) में ग्राम व्यवस्था के संबन्ध में "योगक्षेमानुचिन्तम् " पद आया है। इस पद का आशय यह है कि उपभोग योग्य समस्त वस्तुएँ गाँवों में उपलब्ध हो जाती थीं। अतः आदिपुराण में वर्णित ग्राम्य जीवन आत्मनिर्भर एवं जनतांत्रिक था।
28
डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ने अपने सुप्रसिद्ध शोध प्रबन्ध " आदि पुराण में प्रतिपादित भारत" में लिखा है कि आचार्य जिनसेन द्वारा प्रतिपादित भौगोलिक सामग्री और आर्थिक सिद्धान्त वर्तमान भारत की अनेक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करने में सहायक हैं। आदिपुराण की समीक्षा से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनाचार्यों में प्रवृत्तिमूलक और निवृत्तिमूलक इन दो प्रकार की परस्पर विरोधाभासी विचारधाराओं के मध्य सामञ्जस्य स्थापित करने का प्रयास किया है। जैनदर्शन मुख्यतया निवृत्तिमूलक है, किन्तु व्यावहारिक जीवन में मनीषियों ने प्रवृत्तिमार्ग को निरुत्साहित नहीं किया। आर्थिक विचारों के अन्तर्गत उनका निर्देश धर्म का उल्लंघन न कर धन को कमाना, उसकी रक्षा करना, बढ़ाना और योग्यपात्रों को दान देना है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि पट्कर्म व्यवस्था एक प्रामाणिक आजीविका को प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक वर्ग, प्रत्येक समाज के लिए उसकी योग्यता के आधार पर कौशल के आधार पर सुनिश्चित करती है। यह व्यवस्था जहाँ व्यक्ति के स्तर पर आजीविका प्रदायिनी है, वहीं समाज के स्तर पर चक्रानुक्रम में सामाजिक निर्वहन एवं शांति को सुनिश्चित करते हुए राष्ट्रीय स्तर पर एक सुदृढ़ अर्थव्यवस्था को पूर्ण करती है, राष्ट्र की प्रगति को दिशा देती है, उसको मजबूती प्रदान करती है और अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों का स्थायी व्याकरण रचती है।
संदर्भ:
1. आदिपुराण 16/96
2. आदिपुराण 16/97
3. आदिपुराण 16/98
4. आदिपुराण 16/98
5. आदिपुराण 38/45-46
6. कौटिल्य अर्थशास्त्र 180.1.1
7. आदिपुराण 16/ 250
8. आदिपुराण 16 / 254-57
9. वैश्याश्च कृषिवाणिज्यपाशुपाल्योपजीविताः ।। आदिपुराण 16 / 184
10. आदिपुराण 42/177
11. आदिपुराण 42 / 139-74