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अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011
तर्हि क्षायोपशमिकग्रहणमेव कर्तव्यमिति चेत् ? न गौरवात्।' (सर्वार्थसिद्धि 2.1)
अर्थात् ऐसी शंका नहीं करना चाहिए, क्योंकि यदि सूत्र में 'च' शब्द न रखकर द्वन्द्व समास करते तो मिश्र की प्रतीति अन्य गुण की अपेक्षा होती । किन्तु वाक्य में 'च' शब्द के रहने पर प्रकरण में आये हुए औपशमिक और क्षायिक भाव का अनुकर्षण हो जाता है। शंका- तो फिर सूत्र में क्षायोपशमिक पद का ही ग्रहण करना चाहिए था? समाधाननहीं, क्योंकि क्षायोपशमिक पद के ग्रहण करने में गौरव दोष हो जाता।
१०. 'तु' शब्द के प्रयोग के औचित्य का कथन
सर्वार्थसिद्धि की भाषा की यह विशेषता है कि यदि किसी सूत्र में 'तु' आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है तो उसकी उपयोगिता पर अवश्य प्रकाश डाला गया है। उदाहरणार्थ
'त्रिसप्तनवैकादशत्रयोदशपञ्चदशभिरधिकानि तु।' (तत्त्वार्थसूत्र ४.३१ ) इस सूत्र के अन्त में प्रयुक्त 'तु' शब्द की उपयोगिता स्पष्ट करते हुए पूज्यपादाचार्य लिखते हैं
'तु' शब्द विशेषणार्थः । किं विशिनष्टि ? 'अधिक' शब्दोऽनुवर्तमानश्चतुर्भिरभिसंबध्यते, नोत्तराभ्यामित्ययमर्थो विशिष्यते।' (सर्वार्थसिद्धि 4.31 )
अर्थात् सूत्र में तु शब्द विशेषता को दिखलाने के लिए आया है शंका- इससे क्या विशेषता मालूम पड़ती है? समाधान इससे यहाँ यह विशेषता मालूम पड़ती है कि अधिक शब्द की अनुवृत्ति होकर उसका संबन्ध त्रि आदि चार शब्दों से होता है, अन्त के दो स्थितिकल्पों से नहीं। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति निम्नलिखित है।
ब्रह्म एवं बोल
साधिक दस सागरोपम (7+3)।
साधिक चौदह सागरोपम (7+7)।
साधिक सोलह सागरोपम (947)। साधिक अठारह सागरोपम (1147) | बीस सागरोपम (13+7)।
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बाईस सागरोपम ( 15+7 पूर्वसूत्र ) ।
इस प्रकार ‘तु' के प्रयोग की उपयोगिता का स्पष्टीकरण किया गया है। दार्शनिक वृत्तिवैशिष्ट्य
लान्तव एवं कापिष्ठ शुक्र एवं महाशुक्र शतार एवं सहस्रार
आनत एवं प्राणत आरण एवं अच्युत
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तत्त्वार्थसूत्र जैन सिद्धान्तों का प्रतिपादक ग्रंथ है। इस पर लिखित टीकाओं में 'सर्वार्थसिद्धि' संज्ञक वृत्ति दिगम्बर परंपरा में सबसे प्राचीन मानी जाती है। इसमें तत्त्वमीमांसा, प्रमाणमीमांसा और आचारमीमांसा इन जैन धर्म-दर्शन के तीनों पक्षों का सांगोपांग विवेचन हुआ है। वृत्तिकार ने स्वयं इसकी प्रशंसा करते हुए ग्रन्थान्त में कहा हैस्वर्गापवर्गसुखमाप्तुमनोभिरायै: जैनेन्द्रशासनवरामृतसारभूता ।
सर्वार्थसिद्धिरिति सद्भिरुपात्तनामा तत्त्वार्थवृत्तिरनिशं मनसा प्रधार्या ॥ (सर्वार्थसिद्धि, प्रशस्तिपद्य, १ )