________________
अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011
15 'बुद्ध्यादिवैशेषिकगुणोच्छेदः पुरुषस्य मोक्ष इति। तदपि परिकल्पनमसदेव। विशेषलक्षणशून्यस्यावस्तुत्वात्।' (सर्वार्थसिद्धि पृ.२)
अर्थात् बुद्धि आदि विशेष गुणों का नाश हो जाना ही आत्मा का मोक्ष है। यह कल्पना भी असमीचीन है, क्योंकि विशेष लक्षण से रहित वस्तु नहीं हो सकती है।
वैशेषिक दार्शनिक यद्यपि आत्मा में ज्ञानादि गुणों को स्वीकार करते हैं, तथापि वे 'नवानामात्मविशेषगुणानामत्यन्तोच्छित्तिर्मोक्षः (प्रशस्तपादभाष्य, व्योमवती टीका, पृ.638) कहकर आत्मा से उनके उच्छेद हो जाने को उसकी मुक्ति मानते हैं। पूज्यपादाचार्य का कहना है कि जब आत्मा में किसी प्रकार का विशेष गुण नहीं रहेगा तो वह वस्तु ही नहीं रह सकेगी। इसी कारण इनकी मान्यता को असत् कहा गया है।
'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' (तत्त्वार्थसूत्र 1.2) की वृत्ति में केवल तत्त्वश्रद्धान कहने से वैशेषिकों द्वारा तत्त्व पद से मान्य सत्ता, द्रव्यत्व, गुणत्व एवं कर्मत्व का श्रद्धान सम्यग्दर्शन कहा जाता, जबकि यह युक्तियुक्त नहीं होता। अतः तत्त्वार्थपद रखा गया है ताकि तत्त्व पद से वैशेषिक मान्य तत्त्व ग्रहण न हो जाये। ६. मीमांसादर्शन समीक्षा
सर्वार्थसिद्धि में मीमांसकों की सीधी समीक्षा का कोई प्रसंग उपस्थित नहीं हुआ है। मीमांसकों के अनुसार वेद ही भूत, भविष्यत्, वर्तमान, दूरवर्ती, सूक्ष्म आदि अर्थों का ज्ञान कराने में समर्थ हैं। अत: उनके अनुसार इन्द्रियजन्य एवं मनोजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष माना गया है। पूज्यपादाचार्य के अनुसार उनका ऐसा मानना समीचीन नहीं है। क्योंकि कोई भी आगम प्रत्यक्ष ज्ञान के बिना नहीं बन सकता है। मीमांसकमान्य योगिप्रत्यक्ष ज्ञान के विषय में कहा गया है
___ 'अस्य योगिनो यज्ज्ञानं तत्प्रत्यर्थवशवर्ति वा स्याद् अनेकार्थग्राहि वा। यदि प्रत्यर्थवशवर्ति सर्वज्ञत्वं नास्ति योगिनः, ज्ञेयस्यानन्त्यात्।'
अर्थात् इस योगी के जो ज्ञान होता है, वह प्रत्येक पदार्थ को क्रम से जानता है या अनेक अर्थों को युगपत् जानता है। यदि प्रत्येक पदार्थ को क्रम से जानता है तो इस योगी के सर्वज्ञता का अभाव होता है, क्योंकि ज्ञेय अनन्त हैं। ७. वेदान्तदर्शन समीक्षा
वेदान्त दर्शन में नाना तत्त्वों को न मानकर एक ब्रह्म तत्त्व ही माना गया है। जगत्, जीव, ईश्वर सब ब्रह्म के ही विकार हैं। वे 'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः' कहकर मात्र ब्रह्म की ही यथार्थ सत्ता मानते हैं। 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' (तत्त्वार्थसूत्र, 1.2) की वृत्ति में आचार्य पूज्यपाद ने तत्त्व और अर्थ दोनों के एकत्र उल्लेख का औचित्य सिद्ध करते हुए वेदान्तियों की एक तत्त्व मानने की मान्यता का खण्डन किया है। वे लिखते
'पुरुष एवेदं सर्वम् इत्यादि कैश्चित्कल्प्यत इति। एवं सति दृष्टेष्टविरोधः तस्मादव्यभिचारार्थमुभयोरुपादानम्।' (सर्वार्थसिद्धि, १.२)
अर्थात् यह सब (दृश्य एवं अदृश्य जगत्) पुरुषस्वरुप ही है। जिन्होंने ऐसी